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________________ १३ अद्वैत और द्वैत 1 मनुष्य चेतनावान् प्राणी है । इसलिए वह सोचता है, देखता है । वह मानसिक स्तर पर सोचता है । मन की गहराई में उतर कर देखता है । सत्य की खोज चिन्तन-मनन और दर्शन से हुई है। उसका विकास सामाजिक सन्दर्भ में हुआ है मनुष्य ने सामाजिक जीवन जीना प्रारम्भ किया । 'उसके बाद उसने सत्य की खोज बड़ी तीव्रता से की। उसने देखा कि पहाड़ क्या है ? नदियां क्या हैं? दिखाई देने वाले ये पदार्थ क्या हैं? क्या ये ही सब कुछ हैं या इनसे परे भी कुछ है ? क्या ये सृष्ट हैं या स्वयंभू हैं? इनका सृष्टा कौन है ? अगर कोई है तो वह ज्ञात हैं या अज्ञात ? - इस प्रकार अनेक जिज्ञासाएं मनुष्य के मन में पैदा हुईं और उसने अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाने के लिए प्रयत्न प्रारम्भ कर दिए। इस श्रृंखला में दृष्टि और विचारों का विकास हुआ। दृष्टि और विचार - ये दोनों दर्शन परक हैं । दर्शन का निर्माण किया नहीं गया, वह हो गया । मैं जो देखता हूं उसे दूसरा माने या न माने, यह मेरे पर निर्भर नहीं है । यह निर्भर हैं सामने वाले पर । मैंने जो अन्तर्दृष्टि से देखा, उसे समझाने के लिए, उसकी व्याख्या की तर्क के माध्यम से। मैंने जो देखा, उसे मैं अपने तर्क के द्वारा प्रस्तुत करता हूं और सामने वाले व्यक्ति को मेरा तर्क स्वीकार हो जाता है तो मेरा विचार और उसका विचार - दोनों का विचार एक हो जाता है। तर्क दोनों को जोड़ने का काम करता है । अन्तर्दृष्टि वैयक्तिक है और तर्क है दोनों को जोड़ने वाला सूत्र । दोनों में वैचारिक एकता का संपादन करने वाला सूत्र है तर्क । इस प्रकार अन्तर्दृष्टि और विचार - दोनों मिलकर दर्शन की आत्मा का निर्माण करते हैं। दर्शन का प्रासाद इन दोनों खम्भों पर खड़ा हुआ है । 1 दर्शन की दो धाराएं दर्शन की धारा बहुत प्राचीन है । विश्व के इतिहास में दो देश थे दर्शन के आविष्कारक - भारत और यूनान । भारतीय दार्शनिक और यूनानी दार्शनिक - ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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