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________________ अनेकान्तवाद : आधुनिक संदर्भ में या निदान नहीं हो सकता, वह यही ध्वनित करता है। यह समदष्टि का परिसूचक है; उस समदृष्टि, या समन्वयात्मक भावना का, जो भारतीय संस्कृति की एक विशिष्टता है। महावीर का अनेकांतवाद सभी प्रकार के अन्तविरोधों का उच्छेदन करने वाला है। उसमें लोकसंग्रह एवं समतावादी भावना का आधिक्य है, इसे हम सर्वधर्मसमभाव या धर्मनिरपेक्षता का साकारित रूप कह सकते हैं । आज देश में जब-तब साम्प्रदायिकता, धर्मांधता स्वार्थान्धता से वातावरण विषाक्त हो जाता है, राजनैतिक मताग्रह एवं स्वार्थलिप्सा के कारण विश्व-वायुमण्डल द्वंद्व, संघर्ष, रक्तपात से परिदूषित कलंकित और होता है; वह इसी कारण कि मनुष्यों में अनेकांतवादी दृष्टि' का लोप हो गया है। नहीं तो क्या विश्व-समस्याओं का कोई सर्वसम्मत समाधान नहीं हो सकता था? क्यों तोपों को निर्वाध रूप में आग उगलनी पड़ती, क्यों सुकुमार शिशुओं के नृशंस से रक्त से भूमि रंग जाती, दिशाएं लाल होती ? यदि हमें राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाना है, भावात्मक एकता को मजदूत बनाना है, सामाजिक, धार्मिक और भौतिक दृष्टि से समुन्नत होना है और विश्व की तृतीय महायुद्ध की विभीषिका से रक्षा करना है, उसे नाश से बचाना हैं तो श्लाकापुरुष महावीर के अनेकांतवाद को अंगीकार करना होगा। उनकी इस मौलिक वैचारिक क्रांति को, सूझबूझ को स्वीकार करना होगा, इस अभिनव सांस्कृतिक देन को समझना होगा, पल्ला पसार कर ग्रहण करना होग।। महात्मा गांधी ने अनेकांतवाद के विषय में ठीक ही कहा था-'मेरा अनुभव है कि अपनी दृष्टि से मैं सदा सत्य होता हूं, किन्तु मेरे ईमानदार आलोचक तब भी मुझमें गलती देखते हैं। पहले मैं अपने को ही सही और उन्हें अज्ञानी मान लेता था, किन्तु अब मैं मानता हूं कि अपनी-अपनी जगह हम दोनों ठीक हैं, कई अंधों ने हाथी को अलग-अलग टटोलकर उसका जो वर्णन किया था, वह दृष्टांत अनेकांतवाद का सबसे अच्छा उदाहरण है। इसी सिद्धांत ने मुझे यह बतलाया है कि मुसलमान की जांच मुस्लिम दृष्टिकोण से तथा ईसाई की परीक्षा ईसाई-दृष्टिकोण से की जानी चाहिए। पहले मैं मानता था कि मेरे विरोधी अज्ञानी हैं। भाज मैं विरोधियों की दृष्टि से भी देख सकता है। मेरा अनेकांतवाद सत्य और अहिंसा इन युगल सिद्धांतों का परिणाम है।" 'धम्मो वत्थसहावो' वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं, प्रत्येक वस्तू अनेक धर्म्य होती हैं, उसकी अनेक भूमिकाएं होती हैं । उपयोगिता की दृष्टि से उसमें भेद संलक्षित होते हैं, जबकि अस्तित्व की दृष्टि में उसमें साम्य और ऐक्य है । वस्तु की एकरूपता का दुराग्रह त्यागकर उसकी अनेकरूपता का प्रतिपादन करना ही अनेकांतवाद है। इस समय रात भी है और दिन भी है। देखने में विरोधाभास अवश्य लगता है, लेकिन समझने पर इसकी पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003145
Book TitleAdhyatma ke Pariparshwa me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNizamuddin
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size9 MB
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