SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सेवा के कार्यक्रम थे । वे अपने-अपने गांवों-कस्बों में सबके लिए भोजन की व्यवस्था रखते थे। औषधियां सुलभ करवाते थे । शिक्षा की सुविधा देते थे, और जैन धर्म स्वीकार करने वालों को सब तरह से अभय बना देते थे । इन चारों कार्यक्रमों का व्यापक प्रभाव था । इस कारण जनता सहज ही जैन धर्म से आकृष्ट ती थी । किसी भी धर्म के सिद्धान्त कितने ही ऊंचे क्यों न हों, जन सेवा के अभाव में वे ग्राह्य नहीं बनते। जब तक देश में जैन लोगों का वर्चस्व स्थापित नहीं होगा और उनके द्वारा जन सेवा के प्रभावी कार्यक्रम नहीं किए जाएंगे, जैनधर्म के आम आदमी तक पहुंचने में कठिनाइयां रहेंगी । जातिवाद, छुआछूत, साम्प्रदायिकता आदि संकीर्णताएं जैनधर्म में नहीं थीं । युग के प्रवाह में बहकर जैन लोगों ने अपने परिवेश में इनको पनपने का अवसर दिया। जैन धर्म के वर्ग विशेष में सिमटने का यह भी एक प्रमुख कारण है । जिज्ञासा - ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों के अनुयायी एक न्यूनतम आचार-संहिता का पालन करते हैं। क्या जैनों की भी ऐसी कोई आचार-संहिता है ? नहीं तो आपकी दृष्टि में उसका क्या प्रारूप हो सकता है ? समाधान- सामान्यतः प्रत्येक धर्म की आचार संहिता होती है । जिस धर्म के अनुयायी परम्परागत आचार-संहिता से पूरे प्रतिबद्ध रहते हैं, वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे संक्रांत होकर जीवंत रह जाती है। जिस धर्म के अनुयायी उसके प्रति उपेक्षा रखते हैं, वह आचार संहिता धीरे-धीरे लुप्त होने लगती है। जैन-धर्म की भी अपनी न्यूनतम आचार-संहिता है । उसके प्रति प्रतिबद्धता का भाव कम होने से आज जैन लोगों की धार्मिक चर्या में एकरूपता नहीं रह पाई है। सलक्ष्य प्रयत्न किया जाए तो उसका एक रूप स्थिर हो सकता है । युगीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में उसका संभावित प्रारूप यह हो सकता • दिन में कम-से-कम तीन बार नमुक्कार महामंत्र की पांच-पांच आवृत्ति । • सांवत्सरिक महापर्व की एकता । उस दिन पूरा उपवास, सब प्रकार के कारोबार बन्द और सांवत्सरिक 'खमतखामणा' का प्रयोग । १६८ : दीये से दीया जले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003144
Book TitleDiye se Diya Jale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy