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________________ ५६. परिणाम से पहले प्रवृत्ति को देखें जीवन कैसा होना चाहिए? यह एक प्रश्न है । प्रश्न नया नहीं, सनातन है । प्राचीन युग में बहुत लोगों के मन को इस प्रश्न ने आन्दोलित किया होगा । वर्तमान में ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जो इस प्रश्न में उलझ रहे हैं । भविष्य में यह स्थिति नहीं रहेगी, ऐसा कहने के लिए हमारे पास कोई ठोस आधार नहीं है । 1 कुछ लोग जीते हैं, पर वे क्यों जीते हैं? और कैसा जीवन जीते हैं? इस बात से उन्हें कोई सरोकार नहीं होता। उन्हें जीना है, इसलिए वे जीते हैं क्यों और कैसे ? जैसे प्रश्नों पर सोचने के लिए न तो उनके पास समय है और न वैसी समझ ही विकसित है। जीना उनकी नियति है । जीवन का रथ कब, किस दिशा में आगे बढ़ता है और कहां जाकर रुकता है, इस स्थिति से वे बेखबर रहते हैं । उनको खबर रहती है सुबह से शाम तक दौड़धूप की । परिवार की गाड़ी को आगे खींचने के लिए भोजन, वस्त्र और मकान की । कुछ लोग जीते हैं, एक स्वप्न के साथ जीते हैं, एक संकल्प के साथ जीते हैं । युग की प्रत्येक सुविधा उनके पैरों तले बिछी रहे, यह उनका सपना है । इस स्वप्न को साकार करने के लिए वे चिन्तन करते हैं, योजना बनाते हैं, योजना को क्रियान्वित करने के स्रोत खोजते हैं और पुरुषार्थ भी करते हैं। उनके जीवन का लक्ष्य होता है-अधिक-से-अधिक उपभोग की सामग्री का संग्रह और अधिक-से-अधिक भोग । इस लक्ष्य की पूर्ति करते समय वे भूल जाते हैं कि संग्रह की सीमा होती है और भोग की भी सीमा होती है । आज तक संसार में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ, जिसने पूरे विश्व का ऐश्वर्य संगृहीत किया हो और संभवतः ऐसा व्यक्ति भी नहीं हुआ, जिसने अपने संगृहीत धन-वैभव का तृप्तिदायक उपभोग किया हो। ऐसी स्थिति में १२२ : दीये से दीया जले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003144
Book TitleDiye se Diya Jale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size9 MB
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