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________________ पीढ़ी के लोगों की अध्यात्म या संन्यास के क्षेत्र में रुचि कम हो रही है या समाप्त हो रही है। उन्हें अर्थ ही अर्थ दिखाई दे रहा है। अर्थ जीवनयापन का साधन है, यह कोई नई बात नहीं है। मनुष्य अर्थ के बिना भी जी सकता है, अच्छे ढंग से जीवनयापन कर सकता है। यह विलक्षण अवधारणा है। इसके द्वारा संयम, त्याग या संन्यास के पथ पर गति होती है। इस ओर से आंख मूंद लेना देश के हित में कैसे होगा? मनुष्य अर्थ के अर्जन और संग्रह की स्पर्धा में खड़ा है । इस स्पर्धा में कोई भी खड़ा हो सकता है। पर परिग्रह के विसर्जन की स्पर्धा में कौन खड़ा हो सकता है ? एक सेठ ने अभूतपूर्व दान देने का निर्णय लिया। उसने सोने की चौकी बनवाई । उस पर हीरे-मोती सजाए। एक ब्राह्मण को आमंत्रित कर सेठ बोला- 'ब्राह्मण देवता ! यह चौकी मैं आपको देता हूं। ऐसा दान कहीं देखा है आपने? यह बात सुन ब्राह्मण का स्वाभिमान जागा। उसने अपनी जेब से दो रुपए निकाले। उस चौकी पर रखे और कहा- 'मैं इस चौकी का विसर्जन करता हूं, त्याग करता हूं। सेठ साहब ! आपने ऐसा त्याग कहीं देखा है? सेठ का सिर लज्जा से झुक गया। ऐसे प्रसंग में ‘आयारो' का सूक्त आंखों के सामने आ जाता है-अस्थि सत्थं परेण परं, णत्थि असत्थं परेण परं-हिंसा में परंपरा चलती है। अहिंसा में कोई परंपरा नहीं है । हिंसा हो या परिग्रह, उसमें होड़ चल सकती है। अपरिग्रह में होड़ नहीं चलती। अपरिग्रह का मार्ग ही संन्यास का मार्ग है। ___ संन्यास न पलायन है और न रूढ़ि है। यह एक साहसिक अभियान है। इस अभियान के लिए घर का त्याग कर चलने वाले कुंठा, तनाव, हीनभावना, असंतोष आदि युगीन बीमारियों से मुक्त रहते हैं। उनके सामने ये समस्याएं क्यों नहीं रहती हैं? अनुसंधान किया जाए तो कुछ कारण स्पष्ट हैं। तनाव, असंतोष आदि का कारण है-इच्छाओं का विस्तार, एषणाओं का विस्तार और संग्रह की धुन । संन्यास का पथ अनिच्छा, अनेषणा और असंग्रह की ओर ले जाने वाला है। इस पथ पर बढ़ने वाले युगीन बीमारियों से आक्रान्त क्यों होंगे? अध्यात्म भारतीय संस्कृति का आधार है। इसे सुरक्षित रखने के लिए प्रयत्नर्पूवक संन्यास की परंपरा को सुरक्षित रखने की अपेक्षा है। संन्यास परम्परा और ज्ञान की धारा : १०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003144
Book TitleDiye se Diya Jale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size9 MB
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