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________________ तीर्थंकर-स्वरूप-विवेचना अब प्रश्न यह है कि तीर्थंकर कौन होते हैं ? तीर्थंकर का स्वरूप और लक्षण क्या है एवं तीर्थंकर की विराट भूमिका किस प्रकार की होती है ? मेरे जैसे साधारण बुद्धि वालों के लिए इसकी समग्र व्याख्या कठिन है। 'गूंगे के गुड़' की भाँति ही मैं तीर्थंकरों की महत्ता को हृदयंगम तो किसी सीमा तक कर पाता हूँ, किन्तु उसके समग्र विवेचन की क्षमता का दावा मेरे लिए दंभ मात्र होगा। तीर्थंकर गौरव अतिविशाल है, उसके नवनवीन परिपार्श्व हैंआयाम हैं, उसकी महिमा शब्दातीत है। जैन शास्त्रीय शब्द 'तीर्थकर' पारिभाषिक है। अभिधार्थ से भिन्न ग्राह्य अर्थ वाले इस शब्द की संरचना 'तीर्थ' और 'कर' इन दो पदों के योग से हुई है। यहाँ 'तीर्थ' शब्द का लोक प्रचलित अर्थ 'पावन-स्थल' नहीं, अपितु इसका विशिष्ट तकनीकी अर्थ ग्राह्य है। वस्तुत: 'तीर्थ' का प्रयोजन है—साधु, संघ से। इस धर्मसंघ में चार विभाग होते हैं-साध्वी, श्रावक और श्राविका। ये चार तीर्थं हैं। तीर्थंकर वह है जो इन चार तीर्थों का गठन करे, इनका संचालन करे। इस प्रकार चतुर्विध धर्मसंघ का संस्थापक ही तीर्थंकर है। वह परमोपकारी, उच्चाशय, पवित्र आत्मा तीर्थंकर है, जो समस्त मनोविकारों से परे हो। अपनी कठोर साधना और घोर तपश्चर्या के बल पर वह केवलज्ञान, केवलदर्शन का लाभ प्राप्त करता है और अन्तत: कालकर वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है। किन्तु मात्र इतना-सा स्पष्टीकरण ही किसी के तीर्थंकरत्व के लिए पर्याप्त नहीं होता। उक्त कथित क्षमता के धनी तो तीर्थंकर की भाँति सर्वज्ञ और सर्वदर्शी सामान्य केवली भी हो सकते हैं किन्तु उनमें तीर्थंकर के समान पुण्य का चरमोत्कर्ष नहीं होता। दूसरा ज्ञातव्य तथ्य यह है कि सर्वज्ञता के अधिकारी एक ही अवसर्पिणी काल में असंख्य आत्माएँ हो सकती हैं जबकि तीर्थंकरत्व केवल 24 उच्च आत्माओं को ही प्राप्त होता है और हुआ है। अत: तीर्थंकरों के लिए कौन-सी विशिष्टता अतिरिक्त रूप से उपेक्षित होती है यह विचारणीय प्रश्न है। वस्तुत: उपर्युक्त अर्जनाएँ, केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर निर्वाण के दुर्लभ पद को सुलभ कर लेने वाले, सिद्ध, बुद्ध और मुक्त दशा को प्राप्त असंख्य जन 'केवली' हैं। वे अपनी धर्म-साधना के आधार पर प्राय: स्वात्मा को ही कर्म- बंधन से मुक्त करने में समर्थ हैं। तीर्थंकर इससे भी आगे चरण बढ़ाता है। वह अपनी अर्जनाओं की शक्ति का जगत के कल्याण के लिए प्रयोग करता है, अपने ज्ञान से सभी को लाभाविन्त करता है। वह पथभ्रष्ट मानवता को आत्म-कल्याण के सन्मार्ग पर आरूढ कर उस पर गतिशील रहने के लिए क्षमता प्रदान करता है और असंख्यजनों को मोक्ष के लक्ष्य तक पहुँचने की जटिल यात्रा में अपने सजग नेतृत्व का सहारा देता है, उनका मार्ग-दर्शन करता है। यह सर्वजनहिताय दृष्टिकोण ही केवली को अपनी संकीर्ण परिधि से बाहर निकाल कर तीर्थकरत्व की व्यापक और अत्युच्च भूमि पर अवस्थित कर देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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