SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 11 से पहचाना गया है। ऋग्वेद में वातरशन मुनि का वर्णन है।' तैत्तिरीय-आरण्यक में केतु, अरुण और वातरशन ऋषियों की स्तुति की गई है। आचार्य सायण के मतानुसार केतु, अरुण और वातरशन ये तीनों ऋषियों के संघ थे। वे अप्रमादी थे। श्रीमद्भागवत के अनुसार भी वातरशन श्रमणों के धर्म का प्रवर्तन भगवान ऋषभदेव ने किया।" तैत्तिरीयारण्यक में भगवान ऋषभदेव के शिष्यों को वातरशन ऋषि और ऊर्ध्वमंथी कहा है। ___'व्रात्य' शब्द भी वातरशन शब्द का सहचारी है। वातरशन मुनि वैदिक परम्परा के नहीं थे, क्योंकि प्रारंभ में वैदिक परम्परा में संन्यास और मुनि पद का स्थान नहीं था। जैनधर्म के प्राचीन नाम - जैनधर्म का दूसरा नाम ‘आर्हत धर्म' भी अत्यधिक विश्रुत रहा है। जो ‘आर्हत्' के उपासक थे वे 'आर्हत्' कहलाते थे। वे वेद और ब्राह्मणों को नहीं मानते थे। ऋग्वेद में वेद और ब्रह्म के उपासक को ‘बार्हत' कहा गया है। वेदवाणी को बृहती कहते हैं। बृहती की उपासना करने वाले बार्हत कहलाते हैं। वेदों की उपासना करने वाले ब्रह्मचारी होते थे। वे इन्द्रियों का संयमन कर वीर्य की रक्षा करते थे और इस प्रकार वेदों की उपासना करने वाले ब्रह्मचारी साधक ‘बार्हत' कहलाते थे। बार्हत ब्रह्म या ब्राह्मण संस्कृति के पुरस्कर्ता थे। वे वैदिक यज्ञ-याग को ही सर्वश्रेष्ठ मानते थे। 7 मुनयो वातरशनाः पिशङ्गा वसते मला। -ऋग्वेद संहिता 10]]]]] 8 केतवो अरुणासश्च ऋषयो वातरशनाः प्रतिष्ठां शतधा हि समाहिता सो सहस्रधायसम्। -तैत्तिरीय आरण्यक 1|21|3|1/24 9 तैत्तिरीय आरण्यक 113116 10 केत्वरुण वातरशन शब्दा ऋषि संधानाचक्षते। ते सर्वेऽपि ऋषिसंघाः समाहित। सोऽप्रमत्ता: सन्त उपदधतु। -तैत्तिरीयारण्यक भाष्य 1|21|3 11 श्रीमद्भागवत 111|12 12 वातरशनाह वा ऋषयः श्रमणा उर्ध्वमंथिनो बभूवुः। -तैत्तिरीयारण्यक 217]] 13 साहित्य और संस्कृति, पृ० 208, देवेन्द्र मुनि, भारतीय विद्या प्रकाशन, कचौड़ी गली, वाराणसी। 14 ऋग्वेद 10|854 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy