SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शिव और सुन्दरता का उसमें अभाव है जबकि धर्म में 'सत्यं' 'शिव' और 'सुन्दरम्' तीनों ही अनुबंधित हैं। जैनधर्म जैनधर्म विश्व का एक महान् धर्म भी है, दर्शन भी है। आज तक प्रचलित और प्रतिपादित सभी धर्म तथा दर्शनों में यह अद्भुत, अनन्य एवं जीवनव्यापी है। विश्व का कोई भी धर्म और दर्शन इसकी प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता। इसमें ऐसी अनेक विशेषताएँ है, जिनके कारण यह आज भी विश्व के विचारकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। यहाँ पर स्पष्ट कर देना अनिवार्य है कि प्रस्तुत विचारणा के पीछे विशुद्ध सत्य-तथ्य की अन्वेषणा ही प्रमुख है, न कि किसी भी धर्म के प्रति उपेक्षा आक्षेप और ईर्ष्या की भावना। सहज ही प्रश्न हो सकता है कि जैनधर्म और दर्शन यदि इतना महान् व श्रेष्ठ है तो उसका अनुसरण करने वालों की संख्या इतनी अल्प क्यों है ? उत्तर में निवेदन है कि मानव सदा से सुविधावादी रहा है; वह सरल मार्ग को पसंद करता है, कठिन मार्ग को नहीं। आज भौतिकवादी मनोवृत्ति के युग में यह प्रवृत्ति द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ती ही जा रही है। मानव अधिकाधिक भौतिक सुख-सुविधाएँ प्राप्त करना चाहता है और उसके लिए वह अहर्निश प्रयत्न कर रहा है तथा उसमें अपने जीवन की सार्थकता अनुभव कर रहा है, जबकि जैनधर्म भौतिकता पर नहीं, आध्यात्मिकता पर बल देता है। वह स्वार्थ को नहीं, परमार्थ को अपनाने का संकेत करता है, वह प्रवृत्ति की नहीं, निवृत्ति की प्रेरणा देता है, वह भोग नहीं, त्याग को बढ़ावा देता है, वासना को नहीं, उपासना को अपनाने का संकेत करता है, जिसके फलस्वरूप ही जैनधर्म के अनुयायियों की संख्या अल्प व अल्पतर होती जा रही है पर, यह असमर्थता, अयोग्यता व दुर्भाग्य आज के भौतिकवादी मानव का है न कि जैनधर्म और दर्शन का है। अनुयायियों की अधिकता और न्यूनता के आधार से किसी भी धर्म को श्रेष्ठ और कनिष्ठ मानना विचारशीलता नहीं है। जैनधर्म की उपयोगिता और महानता जितनी अतीत काल में थी, उससे भी अधिक आधुनिक युग में है। आज विश्व के भाग्यविधाता चिन्तित हैं। भौतिक सुख-सुविधाओं की असीम उपलब्धि पर भी जीवन में आनन्द की अनुभूति नहीं हो रही है। वे अनुभव करने लगे हैं कि बिना आध्यात्मिकता के भौतिक उन्नति जीवन के लिए वरदान नहीं, अपितु अभिशाप है। जैनधर्म : एक स्वतंत्र व प्राचीन धर्म यह साधिकार कहा जा सकता है कि जैनधर्म विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है। यह न वैदिक धर्म की शाखा है, न बौद्धधर्म की। किंतु यह सर्वतन्त्र स्वतन्त्र धर्म है, दर्शन है। यह सत्य है कि 'जैनधर्म' इस शब्द का प्रयोग वेदों में, त्रिपिटकों में और आगमों में देखने को नहीं मिलता जिसके कारण तथा साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण कितने ही इतिहासकारों ने जैनधर्म को अर्वाचीन मानने की भयंकर भूल की है। हमें उनके ऐतिहासिक ज्ञान पर तरस आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy