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________________ ६४ अमूर्त चिन्तन भीतर के आवेग संघर्षरत हो जाते हैं। प्रमाद और विषय - कषाय अपना काम शुरू कर देते हैं । मूर्च्छा भी सक्रिय हो जाती है। राग-द्वेष- ये दोनों अपनी रक्षापंक्तियां मजबूत करने लग जाते हैं । भयंकर युद्ध छिड़ जाता है । यह युद्ध साधक के लिए एक अवसर है । आचारांग में कहा है- 'जुद्धारिहं खलु दुल्लहं' युद्ध का यह अवसर बहुत ही दुर्लभ है । साधक को जमकर मोर्चा लेना है एक ओर से राग-द्वे - द्वेष आक्रमण करते हैं, दूसरी ओर से उनके सैनिक - उत्तेजना, प्रमाद, कषाय आक्रमण करते हैं । साधक उन सबको तोड़कर ही आगे बढ़ सकता है। वह उन्हें समाप्त करके ही अस्तित्व तक पहुंच सकता है। जब साधक वहां तक पहुंच जाता है, तब उसे लगता है क्यों श्वास को देखें, क्यों शरीर के चैतन्य केन्द्र को देखें, क्यों अनशन करें, क्यों ऊनोदरी करें, क्यों संयम करें- - यह सारा झंझट है। सीधा रास्ता है कि ज्ञाता द्रष्टाभाव को ही देखें, उसे ही देखते रहें । पहुंच जाने वाले को लगता है कि यह रास्ता सीधा है, किन्तु जो अभी तक नहीं पहुंचा है उसे यह रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा और कठिन लगता है। उसे पग-पग पर जूझना पड़ता है। सारे आक्रमण एक साथ होते हैं। उन आक्रमणों को विफल किए बिना एक पैर भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता। साधना के प्रारम्भ में इसका अनुभव नहीं होता । किन्तु जब साधक दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ता है और उन सभी आस्रवों तथा वृत्तियों पर प्रहार करना प्रारम्भ करता है, उनके स्थायी आस्रवों को छुड़ाने का प्रयास करता है, तब वे क्रुद्ध सांप की भांति फुफकारने लगते हैं । सांप बाम्बी में शांत बैठा है। हम पास से गुजर जाते हैं तो सांप नहीं फुफकारता । उसे थोड़ा-सा भी छेड़ें, वह क्रुद्ध होकर डसने दौड़ता है । यही बात आस्रवों और वृत्तियों की है। इनका अनादिकालीन स्थायी स्थान छुड़ाना सरल नहीं है। ज्यों-ज्यों साधक आगे बढ़ता है, वृत्तियां और तीव्र होती हैं। जब साधक साधना के मध्य में पहुंचता है तब वे जमी हुई वासनाएं और उत्तेजनाएं, इतने तीव्ररूप में उभरती हैं कि साधक विचलित होने की स्थिति में आ जाता है। यदि उस समय उसे कोई सहायक नहीं मिलता है तो वह साधना से च्युत हो जाता है । उस समय योग्य गुरु या योग्य सहायक की आवश्यकता होती है। वह समय खतरनाक होता है । उस समय जो वृत्तियां उभरती हैं, उनकी कल्पना नही की जा सकती ! अनोखी - अनोखी वृत्तियां उभरती हैं । साधकों का यही अनुभ है कि साधना के मध्यकाल में वृत्तियां तीव्र होती हैं । उस समय उन प नियन्त्रण करना आवश्यक होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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