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________________ अमूर्त चिन्तन दर्द पर ही मन को एकाग्र कर दो।' उसने वैसा ही किया। पांच-दस दिन तक क्रम चला। जैसे-जैसे ध्यान करता गया, कष्ट का भान भी समाप्त हो गया । ४४ दर्द किसको होता है, आत्मा को या शरीर को ? आत्मा को कोई दर्द नहीं होता । हमने अपनी सारी चेतना को दर्द के साथ जोड़ रखा है और इस मान्यता के आधार पर जोड़ रखा है कि दर्द मुझे हो रहा है तभी आपको यह सारा दर्द हो रहा है । यदि भेद-ज्ञान स्पष्ट हो जाए, अन्यत्व का चिंतन स्पष्ट हो जाए तो हम स्वास्थ्य के एक ऐसे वातायन में जाकर बैठेंगे जहां से द्रष्टा की भांति देख सकेंगे कि यह रहा दर्द और यह रहा मैं । यह रहा पथिक और यह रहा मैं । जैसे वातायन पर बैठा आदमी रास्ते चलते आदमी को देखता है, वैसे ही वह कष्ट को अलग देखेगा और अपने को अलग देखेगा । अन्यत्व भावना के विकसित होने पर यह स्थिति बनती है । यदि यह तत्त्व - चिंतन की बात होती तो मेरी बात का प्रतिपक्ष भी होता, मेरे तर्क का प्रतितर्क भी होता, मेरी उक्ति की प्रत्युक्ति भी होती । किन्तु यह साधना की बात है, अनुभव की बात है। साधक भेदज्ञान को प्राप्त करे, विवेक चेतना का जागरण करे, आत्मा की भूमिका पर आकर आत्मा और शरीर के अन्यत्व अनुप्रेक्षा की बात करे, कायोत्सर्ग की साधना करे । उस भूमिका पर पहुंच कर वह यह अनुभव करे कि ऐसा हो सकता है या नहीं । जिसने कायोत्सर्ग किया उसने साधना की भूमिका पर आकर ही किया। जिसकी अन्तर्दृष्टि खुली, वह साधना की भूमिका पर खुली। उसने साधना के द्वारा ही यह समझा कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है। तर्क द्वारा समझा हुआ व्यक्ति इस भूमिका पर नहीं पहुंच सकता । दो बातें हैं - एक है शैक्षणीय और दूसरी है साक्षात् करणीय । शैक्षणीय बातें आगम से, गुरुमुख से या परम्परा से सीखी जाती हैं। बहुत से लोगों ने 'आत्मान्य: पुद्गलश्चान्य: ' -३ ' - आत्मा अन्य है और पुद्गल अन्य है इसे रट रखा है । किन्तु जब उनका शरीर कष्टों से आक्रांत होता है तब वे इस सिद्धांत को बिलकुल भूल जाते हैं। ऐसी स्थिति में यह सिद्धांत विफल हो जाता है । शैक्षणीय की एक सीमा होती है। पहले-पहले कोई बात शैक्षणीय होती है, मान ली जाती है, उधार ली जाती है । किन्तु उधार को सदा उधार ही बनाये रखें, यह नहीं होना चाहिए। उधार को चुकाना पड़ता है, अपना कुछ अर्जित करना पड़ता है । हम शैक्षणीय को साक्षात्करणीय बनायें, हम उसे अनुभव में उतारें कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है । ऐसा होने पर ही यथार्थ घटनाएं घटित होने लगेंगी। व्यक्ति ज्यों-ज्यों गहराई में जाता है तब उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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