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________________ अमूर्त चिन्तन है और फिर साधना से ज्ञान प्राप्त कर भाव- तीर्थंकर बनता है । जब केवल ज्ञान के द्वारा सचाई को प्रकट करते हैं, तभी वे भाव- तीर्थंकर होते हैं। महावीर भी भगवान् के रूप में नहीं जन्मे थे । वे आदमी की तरह ही जन्मे थे, किन्तु चेतना को विकसित कर भगवान् बन गए। हर आदमी भगवान् बन सकता है । भगवान्, भगवान् बना रहे और भक्त, भक्त बना रहे, यह बात चिंतन में नहीं बैठती और उचित भी नहीं लगती । राजा, राजा बना रहे और रंक, रंक बना रहे यह चिंतन आज के युग को मान्य नहीं है। आज तो यह चिंतन मान्य है कि समानता के आधार पर सबको विकास का अवसर मिलना चाहिए। भगवान् महावीर ने इसी भावना से कहा- प्रत्येक आदमी भगवान् बन सकता है । २४ अनित्य अनुप्रेक्षा एक प्रयोग है श्रुतज्ञान का, आत्मज्ञान का । जब श्रुतज्ञान की लगाम हाथ में होती है तो फिर मन का घोड़ा हमें कोई दुःख नहीं दे सकता । श्रुतज्ञान के द्वारा हमें मन को एकाग्र बनाना है, मन को वश में करना है । इसका अर्थ यह है कि हम मन के दास न बनें, किन्तु मन को अपना दास बनाएं। हम मन के आज्ञाकारी सेवक न बनें, किन्तु मन को अपना आज्ञाकारी सेवक बनाएं। जो मन में आया, वह करने वाला मन का दास होता है। समझदार आदमी वह होता है, जो मन में आया, उस पर चिंतन किया कि यह करना चाहिए या नहीं, पूरे चिंतन के बाद जब यह निर्णय हो जाए कि वैसा करना उचित है तो मन की बात भी मानी जा सकती है। इसका अर्थ होगा कि हमारे हाथ में घोड़े की लगाम है और हम उसे चला रहे हैं। हमारे से अलग घोड़ा नहीं चल रहा है । जब लगाम हाथ से छूट जाती है तब आदमी व्यामोह में फंस जाता है । जब श्रुत की लगाम हाथ से छूट जाती है तब आदमी आंखों वाला होते हुए भी अन्धा बन जाता है। मन की स्थिति विचित्र बन जाती है। उसकी भूमिका भी भिन्न हो जाती है। इसलिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि इस मन के घोड़े को ठीक रास्ते पर चलाने के लिए हमारे हाथ में मजबूत लगाम हो । यह लगाम है अनुप्रेक्षा, श्रुतज्ञान, आत्मचिन्तन, आत्मबोध की। अपने विषय में जानना, अपने विषय में सोचना, अपने बारे में चिन्तन करना और गहराई में उतरकर अपने आपका अनुभव करना यह है अनुप्रेक्षा । प्रेक्षा के साथ अनुप्रेक्षा का योग होता है तो मन का घोड़ा सदा राजमार्ग पर चलने लग जाता है और फिर यह प्रश्न नहीं रहता कि मन चंचल है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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