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________________ अनित्य भावना और देखने वाला है वह जीर्ण नहीं हुआ, वह वैसा ही है। परिवर्तनीय के साथ अपरिवर्तनीय की झांकी मिल गई। वैज्ञानिक कहते हैं सात साल में पूरा शरीर बदल जाता है। सत्तर वर्ष की अवस्था में दस बार सब कुछ नया उत्पन्न हो जाता है। लेकिन इस परिवर्तन की ओर दृष्टि बहुत कम जाती है। साधक के पास सबसे निकट शरीर है और भी जड़ चेतन जगत् जो निकट है वह उसे एक विशिष्ट दृष्टि से देखे और अनुभव करे कि यह जगत् उसके लिए एक बड़ी प्रशिक्षणशाला है जो निरन्तर प्रशिक्षण दे रही है। अनित्य भावना में क्षण-क्षण बदलते हुए इस जगत् का और स्वयं के निकट जो है उसका दर्शन करे, अनुभव करे और उसके अन्त:स्थित अपरिवर्तनीय आत्मा की झलक भी पाये। विसंबंध की चेतना __ संसार में कोई संबंध शाश्वत नहीं है। जितने संयोग हैं वे सारे वियोग वाले हैं-'संयोगा: विप्रयोगान्ताः' । अगर इस सचाई तक पहुंच जाते हैं, तो अशाश्वत को शाश्वत मानने की भ्रांति खण्डित हो जाती है और पदार्थ के वियोग से होने वाले सारे असंतोष समाप्त हो जाते हैं। उससे नई आदत और नए संस्कार का निर्माण होता है। जैसे पदार्थ के संबन्ध से एक आसक्ति का संस्कार बनता है। वह संस्कार पदार्थ के चले जाने पर दु:ख देता है वैसे ही पदार्थ के विसंबंध का संस्कार अनुप्रेक्षा के द्वारा निर्मित हो जाए, तो आदमी कभी संतप्त नहीं होगा। वियोग पहला छोर है, संयोग दूसरा छोर है। ये दोनों सचाइयां एक साथ प्रतीत होने लग जाएं। सम्बन्ध की भांति विसम्बन्ध की आदत भी निर्मित हो जाए तो आदमी पदार्थ के जगत् में घटित होने वाली यथार्थ की समस्याओं का यथार्थ की भूमिका पर खड़े होकर सामना कर सकता है। मन पर मैल तब जमता है जब हम अनित्य को नित्य मानकर चलते हैं। संयोग को शाश्वत और विजातीय को सजातीय मानकर चलते हैं। हम इस बात को सिद्धांत से और व्यवहार से भी जानते हैं कि पदार्थ अनित्य है, संयोग अनित्य है। जो पदार्थ प्राप्त है वह अवश्य नष्ट होगा। जो संयोग मिला है, उसका निश्चित ही वियोग होगा। पदार्थ अनित्य है, पदार्थ का संयोग अनित्य है और पदार्थ विजातीय है। चेतना का गुण-धर्म पदार्थ से भिन्न है। हम इन सब तत्त्वों को जानते हैं, किन्तु पदार्थ को नित्य मानकर व्यवहार करते हैं, पदार्थ के संयोग को शाश्वत मानकर चलते हैं और पदार्थ को सजातीय मानते हैं, अपना मानते हैं। हम इसे जानते नहीं, केवल मानते हैं। जानने और मानने में बहुत बड़ा अन्तर है। जिस दिन हम मानने की अवस्था को पार कर जानने की स्थिति में पहुंच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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