SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनित्य भावना यह शरीर अनित्य है । यह यौवन अनित्य है । शरीर की सुन्दरता का अभिमान हो सकता है । यौवन का अभिमान हो सकता है। यह परिवार का संयोग अनित्य है । अपने परिवार का अभिमान हो सकता है । यह वैभव, यह सम्पदा अनित्य है । सम्पदा का अहंकार हो सकता है । इष्ट का संयोग भी अनित्य है । ये सब अनित्य हैं। और क्या ? जीवन भी अनित्य है । जब अनित्यता का यह अनुचिंतन सामने रहता है, बार-बार चेतना में उभरता है तब अहंकार के प्रश्न समाप्त हो जाते हैं । जिस व्यक्ति को अनित्यता का अनुभव नहीं होता, उसमें क्रोध आने का बहुत अवकाश रहता है। जिसकी चेतना में यह बात जम गई कि संयोग अनित्य है, पदार्थ नश्वर है, तब पदार्थ के चले जाने पर भी वह दुःखी नहीं होगा । हमारे व्यावहारिक जीवन में भी अनित्य अनुप्रेक्षा का बहुत बड़ा महत्त्व है । जिस व्यक्ति के चित्त में यह संस्कार पुष्ट बन जाता है कि सब पदार्थ अनित्य हैं, फिर उस व्यक्ति के मन में विवाद बढ़ने वाली बातें समाप्त हो जाती हैं । वह घटना को जान लेता है, भोगता नहीं । ध्यान करने वाले में और ध्यान नहीं करने वाले में यही अन्तर है। ध्यान करने वाला व्यक्ति घटना को जानता है, भोगता नहीं। ध्यान नहीं करने वाला व्यक्ति घटना को जानता नहीं, भोगता है । घटना को जानने वाला व्यवहार को अमृतमय बना देता है, मधुर बना देता है । घटना को भोगने वाला स्वयं दुःख पाता है और सारे वातावरण में दुःख के परमाणुओं को बिखेर देता है, सारा वातावरण दुःखपूर्ण बन जाता है। तब दुःख उसी तक सीमित नहीं रहता, विस्तृत हो जाता है । शरीर के यथाभूत स्वभाव और उसकी क्रियाओं का निरीक्षण करने वाला उसके भीतर होने वाले विभिन्न स्रावों को देखने लग जाता है । I शरीर - दर्शन के अभ्यास से शरीर में घटित होने वाली अवस्थाएं स्पष्ट होने लग जाती हैं। भगवान महावीर ने कहा- ' - 'तुम इस शरीर को देखो। यह पहले या पीछे एक दिन अवश्य छूट जाएगा। विनाश और विध्वंस इसका स्वभाव है यह अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत है। इसका उपचय और अपचय होता है। इसकी विविध अवस्थाएं होती हैं ।' शरीर की अनित्यता के अनुचिंतन से शरीर के प्रति होने वाली गहन आसक्ति से मुक्ति पायी जा सकती है। शरीर की आसक्ति ही सब आसक्तियों का मूल है। उसके टूट जाने पर अन्य पदार्थों में होनी वाली आसक्तियां अपने आप टूटने लग जाती हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy