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________________ २२६ अमूर्त चिन्तन की प्राप्ति में ये विघ्न डालते हैं। आत्म-साक्षात्कार की एक छोटी-सी प्रक्रिया है। उसके सहारे हम लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं। प्रत्येक साधक में निम्न गुण आवश्यक हैं १. लक्ष्य में दृढ़-आस्था। २. लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण। ३. लक्ष्य-प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्न और दीर्घकालीन अभ्यास । ४. आसन का अभ्यास, शरीर-स्थैर्य । ५. वाक्-संयम। ६. सत् संकल्पों से मन को भावित करना। ७. चित्त-निरोध। आत्मा वशीकृतो येन, तेनात्मा विदितो ध्वम् । अजितात्मा विदन् सर्वमपि नात्मानमृच्छति।। जिसने आत्मा को वश में कर लिया, उसने वास्तव में आत्मा को जान लिया। जिसने आत्मा को नहीं जीता, वह सब कुछ जानता हुआ भी आत्मा को नहीं पा सकता। योग का अंतिम अंग समाधि है। उसका अर्थ है-आत्मनिष्ठा, बहिर्भाव से सर्वथा विलग होना। यहां परमात्मा और स्वात्मा का पूर्ण सादृश्य प्रतीत ही नहीं, अनुभूत होने लगता है। आत्मा की मौन ध्वनि मुखरित हो उठती है। जो परमात्मा है वह मैं हूं और जो मैं हूं वह परमात्मा है-यह सत्य समाधि की नीची अवस्थाओं में भी उसे प्रतीत होने लगता है। वस्तुत: परम सत्य की दृष्टि में आत्मा और परमात्मा का स्वरूप अभिन्न है। भिन्नता व्यवहार में है। अभेद का उपासक भिन्नता के घेरे को लांघकर अभेद में चला जाता है। समाधि परमात्मस्थता का सर्वोच्च सोपान है। योगी वहां बहि:स्थता को सर्वथा भूल जाता है। वह क्या है ? किसका है ? कैसा है ? कहां है ? इन विकल्पों से अतीत हो जाता है। उसे अपने शरीर का भी भान नहीं रहता। वह आत्म-चैतन्य और आत्मानन्द में इतना खो जाता है कि बाहर उसे कुछ दिखाई नहीं देता। समाधि अभेद-दृष्टि से परमात्मा के साथ एकीकरण है और भेद-दृष्टि से आत्मा का स्वयं परमात्मा होना है। अभेदद्रष्टा आत्मा का परमात्मा के साथ विलीनिकरण में व्यग्र रहते हैं। आत्मा का स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रकारांतर से वहां स्वत: प्रस्फुट हो जाता है। आत्मा के एकत्व और अनेकत्व की दो दृष्टियों का समन्वय ही हमें पूर्णता का अनुभव करा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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