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________________ १९६ अमूर्त चिन्तन रखकर देख लो कि उनका घनिष्ठ प्रेम कैसे खंड-खंड होकर बिखर जाता है। जब तक साथ नहीं रह लें तब तक घनिष्ठता बनी रहती है। साथ रहे कि घनिष्ठता टूटी। साथ रहकर घनिष्ठ प्रेम बनाए रखना, लम्बे समय तक बनाए रखना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। क्योंकि आदमी पग-पग पर टकरा जाता है। यह टकराव स्थार्थ के कारण, मान्यताओं के कारण, धारणाओं के कारण होता है। उस स्थिति में सह-अस्तित्व और समन्वय की चेतना से ही वह तनाव या टकराव समाप्त हो सकता है। जीवन जीने का कला है खिंचाव और ढील का समन्वय । सह-अस्तित्व के लिए दोनों जरूरी हैं। खिंचाव के साथ ढील देने की कला भी हम जानें। एक तथ्य बहुत स्पष्ट है कि जहां भेद होता है, तनाव होता है वहां विरोध की स्थिति पैदा हो जाती है। यह क्यों होता है ? निकट की रिश्तेदारी में भी यह अपवाद नहीं है। जहां भेद रेखा आयी कि चेतना बदल गई। चेतना का परिवर्तन क्यों होता है ? . जब आदमी समन्वय की चेतना से समाधान खोजता है। तो कठिन कार्य भी सरल बन जाता है। प्रत्येक समस्या का समाधान हो सकता है। समस्या है तो समाधान भी है। ऐसी एक भी समस्या नहीं है जिसका समाधान न हो। जहां समन्वय की चेतना का विकास होता है, जहां सापेक्षता की चेतना जागृत होती है, वहां कुछ भी असम्भव नहीं होता। एक अंगुली को दूसरी अंगुली की अपेक्षा रहती है। विरोध कहां नहीं है। हम हाथ को देखें। चार अंगुलियां और अंगूठा विरोधी हैं। दोनों भिन्न दिशाओं में हैं। पूरी मानव-जाति का विकास इस विरोध के आधार पर हुआ है। यदि अंगूठा अंगुलियों की समरेखा में होता तो मनुष्य-जाति का विकास कभी नहीं होता, संस्कृति और सभ्यता का विकास कभी नहीं होता। सभ्यता और संस्कृति का विकास इसी विरोध के कारण हुआ है। अंगूठा अंगुलियों की विरोधी दिशा में है, इसलिए लिपि का, चित्रकारिता का और शिल्प का विकास हुआ है। दोनों की भिन्न दिशागामिता ने विकास में योग दिया है। इनमें भिन्नता है, पर हम समन्वय करना जानते हैं, इसलिए कोई टकराव नहीं होता। अंगूठा भी नहीं लड़ता और अंगुलियां भी नहीं लड़तीं। आवश्यकतावश दोनों सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं। लिखना है तो अंगुली मिल जाती है अंगूठे से। कोई कार्य करना है तो दोनों परस्पर मिल जाते हैं। प्रश्न होता है कि समन्वय की चेतना का विकास कैसे होता है ? जो व्यक्ति अपने स्वार्थ, मान्यता और असहिष्णुता-इन तीनों वृत्तियों पर शासन करता है, उसमें समन्वय का विकास होता है। जिस व्यक्ति में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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