SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७६ अमूर्त चिन्तन वह देख सके। मन में देखने की शक्ति भी है। सोचना और विचारना यह मन की सतही अवस्था है। देखने में बहुत गहराई होती है। जब मन देखने लग जाता है तब सोचने की बात नीचे रह जाती है। कोई भी बात आती है तो देखने की बात मुख्य होगी, सोचने की बात परिपाश्विक बन जाएगी। हम सोचते हैं, विचारते हैं, उसका हम स्वयं अनुभव नहीं करते और वही बात जब हमारे सामने आती है तब हम विश्वस्त हो जाते हैं कि यह बिल्कुल ठीक है। क्योंकि जब हम केवल सोचते हैं, देखते नहीं, तब वह बात हमारे प्रत्यक्ष नहीं होती। किंतु जब हम आंखों से देख लेते हैं तब कोई संदेह नहीं होता। दीर्घ-श्वास का प्रयोग निर्विचारता का प्रयोग है। यह चिन्तन को सीमित करने का प्रयोग है। यदि अच्छा अभ्यास हो जाता है तो जब चाहें चिंतन कर सकते हैं और जब चाहें चिंतन को रोक सकते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जिन्हें भाषण देना होता है तो पहले पूरी तैयारी करते हैं। बोलते हैं तो चिंतन के साथ बोलते हैं। और भाषण देने के बाद भी चिन्तन चलता रहता है। अगर यह कहता तो और अच्छा रहता। यह कहता तो और भी अच्छा होता। तीन भाषण हो जाते हैं। एक जनता के सामने आता है, दो अपने मस्तिष्क में रहते हैं। तीन भाषण देने वाले लोग ही मिलेंगे। ऐसे व्यक्ति विरल हैं जो भाषण से पहले भी चिंतन नहीं करते, भाषणकाल में चिंतन किया और समाप्त, नि:शेषम्। मैंने एक सूत्र बनाया था निश्चित होने के लिए. वह था नि:शेषम्। हम कोई भी काम करें, गंभीर अध्ययन, गंभीर शोध या गंभीर प्रवृत्ति करें, पूरी तन्मयता के साथ करें, उसमें डूब जाएं। जैसे ही उठें, एक बात का संकल्प ले लें-नि:शेषम्। बस, काम मेरा पूरा हो गया, कुछ भी बाकी नहीं बचा। अब कल नया अध्याय शुरू करूंगा। नया जीवन शुरू करूंगा। नया काम शुरू करूंगा। हम यदि यह भार लेकर उठते हैं कि इतना काम बाकी रह गया तो काम होगा या नहीं होगा, पर दिमाग की शक्ति अवश्य ही खर्च हो जाएगी, तनाव बढ़ जाएगा और वह चिंतन चिंता में बदल जाएगा, कार्य अधूरा रह जाएगा। रावण जैसे शक्तिशाली व्यक्ति ने मरते समय कहा था कि मेरी इतनी बातें अधूरी रह गईं। कौन व्यक्ति है जो यह नहीं कहता है ? एक साधना करने वाला आध्यात्मिक व्यक्ति कह सकता है मेरा कोई काम अधूरा नहीं है, सब पूरा हो गया है। उसका चिन्तन चिन्ता नहीं बन पाएगा। यदि हम चिन्तन और चिंता के भेद को समझ लें तो कोई उलझन नहीं होगी। एक बार आचार्यश्री तुलसी के सामने एक व्यक्ति ने आकर कहा-भीड़ आ रही है, न जाने क्या होगा ? बहुत भय दिखाया, बहुत डरावनेपन की बातें कीं। आचार्यश्री ने एक ही उत्तर दिया-बहुत सुन्दर चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy