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________________ सम्प्रदाय निरपेक्षता अनुप्रेक्षा भगवान महावीर ने तीर्थ की स्थापना की । साधना को सामुदायिक रूप दिया, फिर भी वे सम्प्रदाय और धर्म को भिन्न-भिन्न मानते थे । उन्होंने कहा- 'एक व्यक्ति सम्प्रदाय को छोड़ देता है पर धर्म को नहीं छोड़ता । एक व्यक्ति धर्म को छोड़ देता है, पर सम्प्रदाय को नहीं छोड़ता । ' सम्प्रदाय धर्म की उपलब्धि में सहायक हो सकता है । इस दृष्टि से उन्होंने संघबद्धता को महत्त्व दिया किन्तु धर्म को सम्प्रदाय से आवृत नहीं होने दिया । उन्होंने कहा- जो दार्शनिक लोग कहते हैं कि हमारे सम्प्रदाय में आओ, तुम्हारी मुक्ति होगी अन्यथा नहीं, वे भटके हुए हैं और वे भी भटके हुए हैं, जो अपने-अपने सम्प्रदाय की निन्दा करते हैं। धर्म की आराधना सम्प्रदायातीत होकर, सत्याभिमुख होकर ही की जा सकती है। सम्प्रदाय एक साधन है, जीवन-यापन की परस्परता या सहयोग है । वह व्यक्ति को प्रेरित कर सकता है, किन्तु वह स्वयं धर्म नहीं है । सम्प्रदाय और धर्म को भिन्न-भिन्न मानने वाले साधक के लिए सम्प्रदाय धर्म-प्रेरक होता है, धर्म साधक नहीं । आज एक नई कठिनाई पैदा हो गई है। आज के लोग धर्म और सम्प्रदाय या मजहब को एक मान बैठे हैं। लोग कह देते हैं, धर्म के कारण कितनी लड़ाइयां लड़ी गईं ? कितना रक्त बहा ? कितने देश उजड़े ? धर्म के कारण ऐसा कभी नहीं हुआ और न होगा। यह सब होता है सम्प्रदाय के कारण । धर्म और सम्प्रदाय इतने घुलमिल गये कि जो सम्प्रदाय के नाम पर घटित हुआ, वह सारा धर्म पर आरोपित हो गया । इसलिए धर्म को बदनाम होना पड़ा। यदि कोई आदमी धर्म तक पहुंच जाए तो वहां न लड़ाई है, न द्वेष है और न झंझट है । धर्म का अर्थ है, राग-द्वेष-मुक्त जीवन जीना । जब कोई भी आदमी राग-द्वेष-मुक्त जीवन जीएगा तो लड़ाइयां कहां उभरेंगी ? लड़ाइयां धर्म के कारण नहीं, सम्प्रदाय के कारण हुई हैं, होती हैं । सम्प्रदाय के आवरण में बेचारा धर्म आवृत हो गया । इसीलिए आज धर्म की भाषा समझ में नहीं आ रही है । यह एक समस्या है। इस समस्या को सुलझाने के लिए हमने एक प्रक्रिया प्रारम्भ की। उसमें धर्म शब्द का उपयोग नहीं किया। मैं मानता हूं कि धर्म शब्द बहुत ही मूल्यवान है। उसका अर्थ गम्भीर है । किन्तु परिस्थितिवश उसका अर्थ बदल गया। भाषाशास्त्र के अनुसार शब्दों के अर्थ का उत्क्रमण और अपक्रमण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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