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________________ समन्वय अनुप्रेक्षा १३९ सर्वथा विरोध नहीं है। बहुत बार यह प्रश्न दार्शनिक जगत् में उभरता है कि अमूर्त आत्मा मूर्त शरीर के साथ कैसे जुड़ी ? अमूर्त आत्मा मूर्त्त कर्म के साथ कैसे जुड़ी ? चेतन आत्मा अचेतन शरीर के साथ कैसे जुड़ी ? यदि हम दोनों को सर्वथा विरोधी मान लें तो इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता। यदि हम यह मानें कि ये दोनों सर्वथा विरोधी नहीं हैं तो समाधान मिल सकता है। सर्वथा विरोध हो तो जुड़े नहीं रह सकते। - पुत्र ने कहा-पिताजी ! आज से मैं आपके साथ भोजन नहीं करूंगा। मैं आपसे अलग होना चाहता हूं। पिता बोला-कोई कठिनाई नहीं है। इतने दिन तुम मेरे साथ भोजन करते थे, आज से मैं तुम्हारे साथ भोजन किया करूंगा। ऐसा ही है सम्बन्ध चेतन और अचेतन के बीच । वे कभी अलग नहीं होते, जुड़े हुए रहते हैं। दोनों एक दूसरे का पूरा उपयोग करते हैं। चेतन अचेतन का उपयोग कर रहा है और अचेतन चेतन का उपयोग कर रहा है। चेतन अचेतन को टिकाए हुए है और अचेतन चेतन को टिकाए हुए है। नियम यही है कि दोनों में सर्वथा विरोध नहीं है। दोनों में सर्वथा विलक्षणता नहीं है। दोनों में साम्य भी है। जितने भी वस्तु धर्म हैं वे सब एक दूसरे की पूरकता में चल रहे हैं। केवल पर्यायों का भेद है। जब हम व्यक्त पर्यायों के आधार पर देखते हैं तो भेद दिखाई देता है। केवल भेद, भेद और भेद । जब हम अव्यक्त पर्यायों को देखते हैं तब अभेद दिखाई देता है। केवल अभेद, अभेद और अभेद। हमारा प्राणी जगत् बहुत स्पष्ट है। प्राणी जगत् में वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पशु, मनुष्य आदि भेद ही भेद दिखाई देता है, क्योंकि हम व्यक्त पर्याय को देखते हैं। जब हम अव्यक्त पर्याय को देखना प्रारम्भ करेंगे तब सारा उलट जाएगा, भेद मिट जाएगा, केवल बचेगा चैतन्य । वह सब प्राणियों में समान है। वनस्पति में चैतन्य है। कीड़ों-मकोड़ों में चैतन्य है। पशु और आदमी में चैतन्य है। चैतन्य, केवल चैतन्य बचेगा। सारे पर्दे हट जाएंगे। केवल एक शेष रहेगा, सब मिट जाएंगे। अभेद रहेगा चैतन्य रहेगा। सारे भेद समाप्त हो जाएंगे। भेद और अभेद, विरोध या अविरोध यह मात्र पर्यायों का विश्लेषण है। वस्तु में दोनों धर्म एक साथ रहते हैं। विरोध अविरोध, अस्तित्व और नास्तित्व, सत्ता और असत्ता, शाश्वतता और अशाश्वतता-ये युगल एक साथ रहते हैं। केवल पर्याय का अन्तर है, हमारे देखने के कोण का अन्तर है। हम स्थूल पर्याय को देखते हैं और उसी के आधार पर वस्तु का विश्लेषण कर देते हैं। एक बात को हम फिर समझ लें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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