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________________ १३४ अमूर्त चिन्तन आत्मा की भांति सत्य के जितने रूप और पर्याय हैं सब सम्यग् दर्शन के विषय हैं। उनके प्रति आकांक्षा का होना सम्यग-दर्शन का बहुत बड़ा विघ्न है। जिस व्यक्ति के मन में सत्य तक पहुंचने की भावना होती है, वही उस तक पहुंच पाता है। दूसरी-दूसरी आकांक्षाओं को लेकर चलने वाला सत्य तक नहीं पहुंच सकता। आकांक्षा सत्य की दिशा में जा ही नहीं सकती। उसे लेकर कोई सत्य की दिशा में चलना चाहता है, उसके पैर भी ठिठक जाते हैं। यह सम्यग्-दर्शन का दूसरा विघ्न है। सत्य एक लक्ष्य है। उस तक पहुंचने के लिए अवस्थित अध्यवसाय की आवश्यकता होती है। अनवस्थित अध्यवसाय वाला व्यक्ति एक दिशा में चल नहीं सकता। वह दिशा को बदलता है इसलिए सत्य उसके हाथ नहीं लगता। चित्त की ऊर्जा एक दिशा में प्रवाहित होती है तब वह लक्ष्य तक पहुंच जाती है। चारों दिशाओं में छितरी हुई धारा कभी प्रवाह नहीं बन पाती और प्रवाह बने बिना कोई भी धारा कभी भी समुद्र तक नहीं पहुंच पाती। सत्य के समुद्र तक पहुंचने में चित्त की विचिकित्सा (अनवस्थितता) तीसरा विघ्न है। सत्य की दिशा में यात्रा करने वाले व्यक्ति के लिए यह बहुत महत्त्व का प्रश्न है कि वह किसे समर्थन दे रहा है ? सत्य की दिशा में चलने वाला यात्री यदि असत्य की दिशा में जाने वालों का समर्थन करता है, उनके साथ अपने सम्पर्क को पुष्ट करता है तो उसकी दिशा भी उलट जाती है, इसलिए इस विषय में उसे बहुत सावधान रहने की आवश्यकता होती है। यह विघ्न पहले के विघ्नों से भी अधिक भयंकर है। असत्य दिशागामी व्यक्तियों का समर्थन और संपर्क सम्यग्-दर्शन का क्रमश: चौथा और पांचवां विघ्न है। निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है "इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है। हर सम्प्रदाय यही कहता है कि हमारा मत सत्य है। अपने-अपने मत की सचाई की दुहाई देने के कारण ही असत्य को बढ़ावा मिलता है। भगवान् महावीर ने कहा था कि अनेकान्त सत्य है, एकांत सत्य नहीं है। जो समग्र है, सर्वांगीण है, वह सत्य है। फिर भी सूत्रकार ने यह कैसे कहा कि निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है ? - असत्य का हेतु है-ग्रन्थि। जिसके मन में कोई ग्रन्थि नहीं होती, उलझन नहीं होती, वह निर्ग्रन्थ होता है-असत्य का आग्रह सबसे बड़ी ग्रंथि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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