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________________ मैत्री भावना कहा-' - कुरान का वचन है- क्रोध में मत लड़ो।' मुझे गुस्सा आ गया । शत्रु को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने पूछा - 'इतने वर्षों क्या आप बिना क्रोध में लड़ रहे थे।' अली ने उत्तर दिया- 'हां ।' शत्रु चरणों में गिर पड़ा। उसे पता ही आज चला कि बिना क्रोध के भी लड़ा जा सकता है । वह मित्र हो गया। लड़ने का हेतु भिन्न हो सकता है, किन्तु क्रोध में नहीं लड़ना - यह मित्रता का परिचायक है । मैत्री भाव का विराट् रूप जब सामने आता है तब द्वैत नहीं रहता । 'आयतुले पयासु'- प्राणियों को अपने समान देखो - यह उसका फलितार्थ है । स्वयं सत्य खोजें: सबके साथ मैत्री करें हमें सत्य को जानना है और अपने आपको बदलना है कि हमारा शत्रुता का भाव सर्वथा नष्ट हो जाए। हमारे मन में शत्रुता का भाव रहे ही नहीं । हम आदमी को शत्रु मान लेते हैं। अपना प्रमाद, अपना दोष दूसरे के सिर पर आरोपित कर देते हैं कि उसने मेरा अनिष्ट किया है, उसने मेरा ऐसा कर दिया। कोई भी आदमी यह देखने को तैयार नहीं है कि उसने मेरा कुछ किया है । सारा का सारा दोष हम दूसरों के सिर मंढ़ देते हैं- पत्थर कितने ऊबड़-खाबड़ हैं, मुझे ठोकर लग गई। अपनी गलती से, अपने प्रमाद से ठोकर लगी, इस बात को हम स्वीकार नहीं करेंगे किन्तु कहेंगे कि पत्थर ठीक स्थान पर नहीं थे, इसलिये ठोकर लगी। दरवाजा छोटा है, इसलिए सिर में चोट लगी; किन्तु मैंने दरवाजे को छोटा समझकर भी अपने को छोटा नहीं किया, सिकोड़ा नहीं, इसलिए चोट लगी, ऐसा कोई नहीं सोचता । उसने मेरे साथ ऐसा किया, वैसा किया। उसने मेरे मित्र को बिगाड़ डाला। उसने उसे भ्रमित कर दिया । हम सारा दोषारोपण दूसरों पर करते हैं। दूसरों में दोष देखते हैं और दूसरों को दोषी मानकर अपने आपको बचा लेते हैं । परन्तु जिसने सत्य को खोजा है, जो सत्य का खोजी है, वह दूसरों पर आरोप नहीं लगाता। वह इस बात का अनुभव करता है कि उसका अपना ही प्रमाद बहुत सारी विकृतियां उत्पन्न कर रहा है । शत्रुता का इतना ही अर्थ नहीं है कि दूसरे से द्वेष रहे और मित्रता का अर्थ इतना ही नहीं है कि दूसरे से प्रेम रहे । शत्रुता का अर्थ है - अपने कर्त्तव्य को भुलाकर दूसरे के कर्तव्य में बुराइयां देखना । यह शत्रुता है एक प्रकार की । पत्थर के प्रति भी हमारी शत्रुता हो जाती । हम पत्थर को भी गालियां देने लग जाते हैं। पूरा बर्तन पानी से भरा था। एक हाथ से उसे उठाया वह फूट गया। अब इस सचाई को नहीं खोजा कि पानी से भरा हुआ पात्र एक Jain Education International ८९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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