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________________ तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान करती है, और भाषिकों तथा भाषाविदों का कण्ठहार बनती है । तेरापंथी कवियों की राजस्थानी भाषा संस्कृत और प्राकृत कवियों की उत्कृष्ट शब्दावलि से व्युत्पन्न और समीकृत होने से पर्याय-बाहुल्य-कृत अर्थ-वैशद्य प्रदर्शित करती है । भाषा की पांचवीं विशेषता है उसकी आदान-क्षमता, जिसके बल पर वह अपना क्षेत्र विस्तृत करती है, और अर्थ की नयी-नयी अवाप्तियों और नये-नये आयामों को अपना बनाती चलती है । तेरापंथी साहित्य आदान के द्वारा समृद्ध हो रहा है। यहां तक तो शब्दों की बात है। इससे आगे, शब्दों के प्रयोग का क्षेत्र है । प्रयोग-क्षेत्र में आकर शब्द वाक्य-संरचना के अंग-रूप में परिलक्षित होते हैं, जिससे एक ही कथन विविध अर्थों को ध्वनित करता है, तथा सन्दर्भ-विशेष से अपना अनुकूलन करता हुआ उस स्थिति-विशेष को सामान्यीकृत बनाकर उसकी मूलभूत वैचारिकता को, तथा उस वैचारिकता के विविध आयामों को जीवन्त रूप में पल्लवित और प्रस्फुटित करने लगता है। भाषा की यह ध्वन्यात्मकता काव्य का तो हार्द ही है, आख्यान आदि में भी अर्थ-गांभीर्य का स्रोत बनती है। तेरापंथी सन्त-काव्य में ऐसे अर्थ-गांभीर्य के पुष्कल उदाहरण दिखायी देते हैं। इसी के साथ शब्दों की संगीत-मयता भी एक तत्त्व है जो भाषा को चारुत्व-सम्पन्न करता है, और उसकी संप्रेषण-क्षमता में अतिशय वद्धि करता है। तेरापंथी सन्त संगीत के क्षेत्र में भी अग्रणी हैं। आचार्यों ने पांच सौ से अधिक राग-रागिनियों में रचना की है । संगीत का ऐसा विभुत्व और विस्तार अन्यत्र गोचर नहीं होता। उपर्युक्त इन सब तत्त्वों के मिलित सहयोग से भाषा को पारगामिता प्राप्त होती है। किन्तु ऐसा तत्त्व-संयोजन हर किसी के बूते की बात नहीं है । इसके लिए भाषा-प्रयोक्ता में मनन, संधारण और प्रज्ञान-प्रतिफलन की पर्याप्त क्षमता होना अपेक्षित है। इन क्षमताओं को हम क्रमशः मति, धी (बुद्धि) और प्रज्ञा संज्ञाओं से अभिहित करते हैं । मति और धी की योजना भाषा को यथार्थ-अवबोध के सन्निकट ले जाती है, और तब प्रज्ञा हमारी चेतना को सत्य में अन्तनिविष्ट कराती है। यह तत्त्व का पारदर्शन है, जिसका माध्यम प्रज्ञा है । अन्तनिवेश कराने वाली होने से, तथा चेतना की स्वकीय आन्तवस्तु होने के कारण प्रज्ञा को 'अन्तर्दृष्टि' के नाम से भी जाना जाता है। शब्दों का ऐसी अन्तर्दृष्टि से सम्पन्न होना भाषा का परम वैशद्य होता है। तेरापंथी काव्य संत-काव्य है, अतः अन्तर्द ष्टिमय भी है। तेरापंथी साहित्य ने राजस्थानी शब्द-सम्पदा में विपुल वृद्धि की है। अकेले जयाचार्यजी ने ही दस सहस्र से अधिक शब्द उसमें जोड़े हैं। अन्य आचार्यों, मुनियों और कवियों का एतद् विषयक योगदान बहुत बड़ा है । उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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