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________________ आचार्य श्री तुलसी विरचित....शैली वैज्ञानिक संदृष्टि २२१ 'उनके रस पट-धार की मैं आख्या सुनाता हूँ।' में श्रेय और प्रेय भावानाओं की अभिव्यक्ति है। इन संरचनाओं का संदेश है कि आचार्य माणक धन के लोभ से मुक्त, सत्पुरुषार्थी और मुक्त रस से युक्त व्यक्तित्व के धनी हैं, उनका व्यक्तित्व वक्ता के मन में उन पर न्यौछावर हो जाने की, ध्यान लगाने की, उन्हें निरन्तर स्मरण करने की प्रेरणा देता है। ऐसे महापुरुष की महिमा का गान है-'माणक-महिमा' ग्रंथ। इन प्रयोगों से सिद्ध होता है कि जैसे वक्ता के मानस पटल पर आचार्य श्री माणक जीवंत हैं, उसके मानस चक्षुओं के समक्ष हैं और उसके मन में श्रद्धा, विश्वास, उत्सर्जन तथा दृढ़ संकल्प के भावों की तरंगें उमड़ रही हैं-अनवरत । इन अंशों में विचलन भी है, उद्देश्य और विधेय के स्थापन में। इसका कार्यफलन (Function) है, वक्ता के मन के भाव को अग्रप्रस्तुत करना । इस ग्रन्थ की तीसरी ढाल मेंलालाजी ! थारों, ओ माणक मनभावणो' संरचना का तोन बार यथावत् आवर्तन है, रचनाकार प्रारम्भ के ग्यारह दोहों में लिछमणदासजी और उनके परिवार की लाडनूं यात्रा की चर्चा करके श्री जयाचार्य द्वारा कहलवाता है--'लालाजी ! थारों ओ माणक मनभावणो' अभी दीक्षा की बात नहीं है । तदनन्तर लालाजी ही संकेत समझते हैं, दूहा बारह से सतरह तक लालाजी का कथन है जिसमें माणकजी के स्वभाव, उनके प्रति लालाजी का स्नेह कथित है । दूहा अठारह से बीस तक स्पष्ट कथन है थार ही घर क्यं रहै ? जो म्हारै घर रै जोग हो । छोटो सो साधू बण लाला तो इण रो उपयोग हो।" अलग-अलग प्रसंगों को यह आवर्तित अंश परस्पर संसक्त करता है और यह भी व्यक्त करता है कि वक्ता के मन को उस माणक नाम के अल्पवय बालक ने बहुत गहराई से प्रभावित किया है। लालाजी स्वयं सम्पन्न व्यक्ति थे, शायद उनके पास बहुत से माणिक्य रत्न भी थे, इसलिए 'ओ माणक' प्रयोग विशेष अर्थ गौरव से युक्त है---अन्य माणिक्य नहीं-'ओ माणक मन भावणों। _ 'लालाजी ! थांरो ओ माणक मनभावणो' का तीन बार आवर्तन वक्ता के मन के दृढ़ भाव और तीव्र इच्छा का व्यंजक है । भाव को पुष्ट और कथ्य को सघन बनाता है। यह आवर्तन आचार्य श्री माणक के भाविष्यिक कार्यकलापों की पृष्ठभूमि का सुष्ठु निर्माण करता है। चौथी ढाल में आवर्तन का एक और रूप है१. शासण भाग्य सरांवां म्हे २. मन में इचरज पावां म्हे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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