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________________ तेरापंथ का राजस्थानी प्रबन्ध-काव्य २१३ कपिला का अभया के माध्यम से सुदर्शन को भ्रष्ट करने का षड़यन्त्र और अभया की असफलता पुनः प्रतिशोध स्वरूप सुदर्शन को फांसी पर चढ़ाया जाना किन्तु अन्ततः सत्, शील, संयम की विजय में समीक्ष्य खंड काव्य का वितान बुना गया है। इस कथानक की बुनावट में ही सृजन प्रेरणा अभिप्रेत तक की यात्रा करती है । दासी एवं धात्रीवाहन हमारी उस मानसिक स्थिति अन्विति देते हैं जिसमें विवेकहीनता एवं निर्णय का अभाव एवं यथास्थिति मात्र जीना ही सब कुछ है । विपरीत और गलत से लड़ने की शक्ति के ह्रास को ही हम जीते हैं इसलिए कुछ न करके भी हम दोषी होते हैं । यह मानसिकता स्वयं व्यक्ति के लिए, समाज और राष्ट्र के सही दिशा के विकास में बाधक बनती है। भीखणजी ने इस मानसिकता को ही पात्रों में घटाया है और यह कृति को अर्थवान बनाता है । मनोरमा भी गौण सी स्त्री पात्र है किन्तु नारी के आदर्श स्वरूप की प्रतिनिधि है और पुरुष की शक्ति भी । स्वामी धर्मघोष कवि के विचार और दर्शन के प्रवक्ता हैं जहाँ वे सत्पथ की ज्योति बनकर पथ-प्रदर्शक की भूमिका निर्वाहित करते हैं वहीं बुद्धिजीवी वर्ग की निष्क्रियता को स्वामी धर्मघोष के माध्यम से परोक्षत: उद्घाटित करने का प्रयत्न भी है । रचनाकार रेखांकित करना चाहता है कि भारतीय मनीषी को भी अपना दायित्व पहचानना होगा । पहचानना ही नहीं निर्वाहित भी करना होगा । कृति के पात्र रचना के कथानक के साथ-साथ चलते हैं आडम्बर या कृत्रिमता में जीते हुए दृष्टिगत नहीं होते हैं । वर्णनात्मकता चरित्र सृष्टि का प्रमुख शैलीगत आधार है । चरित्र अपने प्रतीकों की रचना उद्देश्य को सार्थकता के साथ जीते दिखाई देते हैं । यह कृति का घनात्मक पक्ष भी है । समीक्ष्य प्रबन्ध काव्य कृतियाँ राजस्थानी की प्रबन्ध-काव्य परम्परा को तेरापंथ का श्लाघनीय किम्वा अविस्मरणीय आदान है । इन कृतियों का वैशिष्ट्य जहाँ जैन- दर्शन की प्रपत्तियों को कलात्मक अभिव्यक्ति देने में है, वहीं लोक विश्वास, लोक परम्पराओं और आंचलिक सौन्दर्य की व्यंजना में भी समीक्ष्य कृतियों की सार्थकता खोजी जा सकती है । भाषा के आभिजात्य को तोड़कर सहज किन्तु सम्प्रेषीय शिल्प का समायोजन आलोच्य कृतियों को महत्वपूर्ण बनाता है; जीवन दर्शन का पारदर्शी अंकन युग-जटिलताओं के कुहासे को चीरकर सही दिशा की ओर स्पष्टतः संकेतित करता है, यही इन कृतियों की अर्थवत्ता सिद्ध होती है । इसी कारण राजस्थानी प्रबन्ध-काव्य परम्परा में ये विशेष स्थान के अधिकारी हैं । संदर्भ : १. डा० रामधारी सिंह दिनकर - संस्कृति के चार अध्याय । २. डा० देवी प्रसाद गुप्त - हिन्दी महाकाव्य : सिद्धांत और मूल्यांकन, पृ० ३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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