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________________ उपदेश रत्न कथाकोश : एक विवेचन १४९ नैतिक जीवन से जुड़े अनेक पक्षों का विश्लेषण भी इन कहानियों में किया है। ऐसे प्रसंगों में अहंकार के दुष्परिणाम, क्रोध से होने वाले अनर्थ, क्षमा से होने वाले लाभ, लोभ से होने वाले अनिष्ट जैसे अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है । इसके साथ ही अमानत में खयानत न करना, झूठी गवाही न देना, बिना विचारे कोई बात न कहना, सुनी-सुनाई बात पर विश्वास न करना, अप्रिय संभाषण न करना जैसी अनेक नीतिप्रद एवं हितप्रद बातों का खुलासा भी किया गया है । ऐसी कहानियों में कहानीकार पहले शिक्षा रूप में ऐसे कथन प्रस्तुत करते हैं--- "आचारज देव उपदेश में दूहो कह्योझूठा बोला मानवी, नहीं ज्यां री प्रतीत । मनुष्य जमारो हार नै नरकां हुवै फजीत ।।" और अनेक कहानियों में कथा की समाप्ति पर अपनी सम्मति जाहिर करते हुए पाठक को उद्बोधित किया गया है। उदाहरणार्थ--'अविचार्यो काम कीधौ, तो पछ्याताप पायो । यूं जांण नै अविचार्यो काम न करणो ।" और भी--'इम सतगुरु पास विनय करी विद्या भणवी। बिना विनय विद्या सिद्ध हुवै नहीं।" ऐसे सभी उदाहरण और ये सभी व्याख्याएं कथाकोशकार की मान्यताओं एवं उनकी जीवन दृष्टि को रूपायित करती हैं। यों तो कथाकोशकार का सामान्य उद्देश्य उद्बोधन कथाओं का संकलन करना ही रहा है, किन्तु इन कथाओं में आये प्रसंगों और वर्णनों से जयाचार्य युगीन सामाजिक जीवन की विभिन्न स्थितियों का ज्ञान भी होता है । तात्कालिक समाज और विशेष रूप से जैन समाज के विश्वासों, मान्यताओं आदि को जानने की दृष्टि से यह कथाकोश काफी उपयोगी प्रमाणित हो सकता है। सेठ साहूकारों, राजा-महाराजाओं के अतिरित्त सामान्यजन के जीवन की विविध झांकियाँ इन कहानियों में देखने को मिलती हैं। जयाचार्य के इस कथाकोश को जैन संस्कृति का कोश भी कहा जा सकता है। जैन धर्म, दर्शन और संस्कृति के अनेक प्रसंगों का इसमें सहज ही समावेश हो गया है । जैन साधुओं और जैन श्रावकों के विविध आचारों का वर्णन भी इन कथाओं में हुआ है। इसमें एक और सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, कायोत्सर्ग आदि विविध तरह से जैनाचार का वर्णन हुआ है तो दूसरी ओर शुक्लध्यान, केवलज्ञान, वैक्रियलब्धि, जाति-स्मरण-ज्ञान आदि विशिष्ट जैन तत्त्वों का उल्लेख भी हुआ है । जैन धर्म के परिवेश में रहने वाले व्यक्ति के लिए तो जहाँ ये सारे प्रसंग सुपरिचित हैं वहाँ जैनेतर पाठकों के मन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ww
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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