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________________ १४६ तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान इस कथा कोश की अधिकांश कहानियाँ सुखान्त हैं । इन कहानियों में प्रायः भलाई का परिणाम अच्छा और बुराई का परिणाम बुरा चित्रित हुआ है । इसकी बहुत सी कहानियों में पशु-पक्षी, भूत-प्रेत, देव- गन्धर्व आदि मानवतर पात्रों का समावेश भी हुआ है और कुतूहल तथा रोचकता की अभिवृद्धि हेतु कक घटना-प्रसंगों के माध्यम से कहानियों को वांछित जोड़ भी प्रदान किया गया है। इस हेतु अतिमानवीय एवं अलौकिक घटनाप्रसंगों के संयोजन की प्रवृत्ति की भांति ही उसे गतिशीलता प्रदान करने के लिए या उसे चामत्कारिक बनाने के लिए कथानक - रूढ़ियों का प्रयोग किया जाता है । जयाचार्य द्वारा संकलित इन कथाओं में भी अनेक कथानक - रू -रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है । इनमें कतिपय प्रमुख साभिप्राय हैं - निःसंतान अकाल मृत्यु प्राप्त राजा के उत्तराधिकारी चयन के लिए हाथी द्वारा कथानायक के गले में माला डालना या ऐसे ही अन्य किसी प्रयोग द्वारा अपने राजा का चयन करना | बुद्धिमती नायिका द्वारा पुरुषवेश धारण कर प्रवासी पति या पति परिवार को संकट से मुक्त करवाना, पुरुष वेशधारी चतुर एवं साहसी नायिका द्वारा एक या एकाधिक स्त्रियों से विवाह कर विपुल ऐश्वयं या राज्यादि प्राप्तकर सभी सपत्नियों के साथ अपने पति के पास लौटना, पशु या पक्षी द्वारा किसी मानवोपयोगी रहस्य का उद्घाटन एवं उसकी भाषा से विज्ञ नायक या नायिका द्वारा उस रहस्यपूर्ण कथन के सहयोग से कार्य विशेष में सफलता या वैभवादि को प्राप्त करना, व्यापार या धनोपार्जन हेतु समुद्र यात्रा कर रहे नायक को धन या सुन्दर स्त्री के लोभ में समुद्र में धकेला जाना और उसका दैवयोग से सकुशल लौटकर अपने धन या स्त्री को पुनः प्राप्त करना तथा उस खलनायक को प्रताड़ित या दण्डित करना । उपदेश रत्नकथा कोश की इन सामान्य प्रवृत्तियों के विवेचन के साथ ही उसकी उन विशेषताओं की चर्चा भी उपयुक्त होगी जो इसे एक विशिष्ट रूप प्रदान करती हैं। इसमें संगृहीत अधिकांश कहानियाँ संक्षिप्त रूप में संकलित हैं । इन कहानियों में सामान्यतः विशद् वर्णनों का अभाव रहा है और प्रायः वर्णन - न्यूनता के अनुपात में ही कथा रस की न्यूनता भी रही है । इस प्रकार संक्षिप्तता इन कहानियों का प्रधान गुण रही है । संक्षिप्तता के पीछे कुछ स्पष्ट कारण भी रहे हैं । प्रथम तो यह संकलन मूलतः जैन साधु-साध्वियों के लिए किया गया था। जैन साधु पाद - विहारी होते हैं और उन्हें बिहार के समय अपने सारे सामान स्वयं ही कन्धों पर ढोकर ले जाने होते हैं, ऐसी स्थिति में विस्तृत कलेवर वाले ग्रन्थ भी उनके लिए असुविधा का कारण बनते हैं । फलतः जहाँ एक ओर उन्होंने उन ग्रन्थों को सूक्ष्म सुलेख की सहायता से यथासंभव कम-से-कम पत्रों में संकलित करने का प्रयास किया हैं, वहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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