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________________ आचार्य भिक्ष की साहित्य साधना, १३७ आगे लिखा है-फूलांजी ? गुमानांजी ! ये पाधरा न चालिया तो थारो वसेख फितुरो हो तो दीसै छै । तिण सूथे धणां सावधान रही जो । अस्वस्थ की अग्लान भाव से वैयावृत्य पर आचार्य भिक्षु ने विशेष बल दिया है । यही कारण है, इस संघ में दीक्षित होने वाला हर एक सदस्य निश्चिन्तता का अनुभव करता है । जहाँ कहीं उपेक्षा महसूस होती है, तत्काल ध्यान दिया जाता है । आचार्य भिक्षु के शब्दों में आरज्या मांदी हुवै तिण ने गोचरी उठावणी नहीं, मांदी सू कोई काम करावणो नहीं, उण से पिण काम साजी हुवै, त्यां कनै करावणो। आचार्य भिक्षु ने संघ को सुव्यवस्थित बनाने के लिए अनेक संविधान निर्मित किए, जिन्हें लिखित कहकर अभिहित किया गया। सबसे पहला लिखित सं. १८३२ में लिखा गया । कुल १० लिखित लिखे जैसे: सं. १८३२ में युवराज-पद अरपण रो लिखित सं. १८३४ में साध्वियां रो लिखित सं. १८४१ में साधुवां रै पारस्परिक व्यवहार रो लिखित सं. १८४५ में सेवा व्यवस्था रो लिखित सं. १८५० में साधुवां री मरजादा रो लिखित सं. १८५२ में साधवियां री मरजादा रो लिखित सं. १८५९ में सामूहिक मरजादा रो लिखित सं. १८५९ में विगय आदिक री मरजादा रो दूसरो लिखित सं. १८२९ में अखेरामजी रो लिखित सं. १८३३ से आर्या फतूजी आदि रो लिखित अन्तिम दो लिखित व्यक्तिगत प्रेरणा के हैं । आचार्य भिक्षु ने साध्वी फतूजी आदि साध्वियों को दीक्षा देने से पहले कई हिदायतें दी। कुछेक जैसे-- उभी ने कीड़ी न सूझे जद संलेखणा मंडणो । विहार करण री सगत नहीं, जब संलेखणा मंडणो॥ आदि-आदि । अस्तु आचार्य भिक्षु का राजस्थानी साहित्य दार्शनिक, सैद्धांतिक, तात्त्विक विषयों की मौलिक सामग्री प्रस्तुत करता है । आचार्य भिक्षु की उत्क्रांति का मूल आधार था--भगवान महावीर का दर्शन । तत्त्वों का सरल व सूक्ष्म विवेचन उनकी अनन्य विशेषता थी । आगमन समुद्र में अवगाहन करने की उनकी विरल क्षमता थी। उनकी दार्शनिकता गहरे स्वाध्याय से प्रगट हुई । उन्होंने जो कुछ कहा भोगा हुआ सत्य अभिव्यक्त किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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