SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म और धार्मिक धर्म जीवन की पवित्रता का साधन है धर्म जीवन की पवित्रता का एकमात्र साधन है, आधार है । जिस प्रवृत्ति से जीवन की पवित्रता नहीं सधती, वह धर्म कदापि नहीं है । पर आज उसका जो स्वरूप सामने आ रहा है, वह उसकी इस गुणात्मकता के अनुकूल नहीं है। आप देखें, तम्बाकू पीने वाला कहता है, चिलम सुलगाने को जरा आग दे दो, इससे बड़ा धर्म होगा। भीख मांगने वाला दुआ देता है, एक पैसा दे दो, बड़ा धर्म होगा। इतना ही नहीं, हिंसा और शोषण में लगा व्यक्ति भी अपने कारनामों पर धर्म की छाप लगाना चाहता है। सचमुच स्वार्थान्ध व्यक्ति ने धर्म का बहुत बड़ा नुकसान किया है । ऐसी स्थिति में लोग धर्म को अफीम कहते हैं तो बुरा क्या है ? मैं मानता हूं, जब तक धर्म से अपने स्वार्थ को साधने की मनोवृत्ति नहीं मिटेगी, तब तक उसकी तेजस्विता प्रकट नहीं हो सकती। हम ध्यान दें, धर्म के मौलिक तत्त्व हैं- सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, संयम, संतोष और शील। जीवन की पवित्रता इन्हीं तत्त्वों की आराधना से सधती है । स्वार्थवृत्ति, हिंसा, शोषण, अनाचार से उसका कोई संबंध नहीं है, कहीं दूर का भी संबंध नहीं है। धर्म जीवन की पवित्रता को साधने का अपना यह कार्य करता रहे, इसके लिए आवश्यक है कि उसका सम्यक् पालन किया जाए। सच्चा धार्मिक कौन ? मैं देखता हूं, आज धर्म को धर्म-स्थानों एवं धर्मग्रन्थों में आरक्षित कर दिया गया है। पर इससे उसकी सुरक्षा नहीं होगी। उसकी सुरक्षा का तो एक ही उपाय है, एक ही विकल्प है कि उसे जीवन में उतारा जाए । जीवन के व्यवहार एवं आचरण में जीया जाए। मैं आपसे ही पूछना चाहता हूं, मन्दिर की नित फेरी लगानेवाला, संतों के स्थान पर प्रतिदिन जानेवाला, नियमित भगवान के नाम की माला गुननेवाला यदि अपनी दुकान में बैठकर भ्रष्ट आचरण करता है, मिलावट और धोखाधड़ी करता है, कम तोल-माप करता है, तो क्या उसे धार्मिक माना जाए ? उपासना में बढ़-चढ़कर रस ४२ महके अब मानव-मन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003136
Book TitleMaheke Ab Manav Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy