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________________ पथ्यविषयक बाते भी अच्छी नहीं मालूम पड़ती। वैतीही बेचरदासकी भी गति हुई है। जब चारों तरफसे जैनसाहित्य दुनियाके तमाम साहित्यसे उच्च कोटीका साहित्य स्वीकार किया जाता है तब बेचरदासको वह साहित्य जैन धर्मकी “गैर समझती कराने वाला" मालूम पड़ता है, यही इसके दुर्भाग्यकी निशानी है। नहीं तो वैराग्यमार्गपोषक जैन साहित्यको. ऐसी तिरस्कारयुक्तीष्टसे कदापि नहीं देखता । अस्तु । इससे क्या। अगर प्रमेही घीको नहीं खाता तो इससे क्या घीकी कीमत घट सकती है ? अगर उंटको द्राक्षा अच्छी नहीं लगती तो क्या द्राक्षाकी हानि होती है ? अगर गधेको मिश्री मीठी नहीं लगती तो क्या मिश्रीकी मीठास उड़ जायगी ? अगर उल्लुको मूर्यका प्रकाश अंधकाररूप मालूम होतो क्या प्रत्यक्ष प्रकाश अंधेरा कहा जा सकता है ? कदापि नहीं। देखिए जैन साहित्यके विषयमें गायकवाड़ सरकारकी प्रथम नम्बरकी विद्याशाला के हेडमास्तर पं. वासुदेव नरहर उपाध्यायने महाराजा सयाजीरावके हुकमसे हरिविक्रम नामके जैनराजा के चरित्रका मराठी भाषामें अनुवाद किया है उसकी भूमिकामें लिखा है कि ---" जैनधर्म यांचा जसजसा सबन्ध त्यांचे नजरेस येत जाईल तसतसी ही नवीन सांपडलेली विलक्षण रत्नांची अगाध खाण पाहून त्यांचे मन आनन्द सागरांत निमग्न होईल.” भावार्थ-जब जैनसाहित्यका अच्छी तरहसे परिचय मिलेगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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