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________________ (७२ ) वणीका फल लाड़ी गाड़ी और वाड़ीकी मौज मजा ही हैं। और नास्तिकताको बढाना है ऐसी अवम केलवणीमें देवगव्यका लगानातो नरक प्रद है ही है. परन्तु धार्मिक-सामायिक प्रतिक्रमण-प्रकरणादिक ज्ञान देनेमेंभी देवद्रव्यका लगाना पापबन्धका कारण है। अन्यथा ज्ञान देनेवाले साधुओंके लिये देवद्रव्यके लेशवाले मकानमें रहनेकी मनाई कदापि नहीं करते। क्योंकि उस मकानमें उनके रहनेसे धर्मकी ही प्रवृत्ति होती है । अब बतलाइए देवस्वरूप श्रीहरिभद्रसूरि महाराजके वचनको माने या नारक रूप बेचरदास के बचन कों मानें ? यह जरा सोचनेकी बात है । जिसके कलेजेको कीड़े खा गए होंगे वोही वेचरदास जैसे अधर्मान्ध और असत्यवादीके वचनको मान सकता है। तटस्थ-बेचरदासको अवधि और असत्यवक्ता क्यों कहते हो? समालोचक-देखिए अधर्माध तो यों है कि तमस्तरण नामके लेखमें धर्मधुरन्धर पूर्वधरोंकी भी निन्दा कर डाली और असत्यवक्ता तो स्थान २ पर जाहिरही है तथापि यहां पर इसलिये लिखा जाता है कि उस मूर्खने हरिभद्रसूरिमहाराजको अपने भाषणमें चैत्यवासी जाहिर किया है। देखिए सूरिमहाराजका वचनकि" देवद्रव्यके लेशसेभी बनेहुए स्थानमें साधु रहे नहीं अगर रहे तो प्रायश्चित्त आवे." अब विचार करो कि-ऐसे वचनके कहनेवाले इरिभद्रसूरि महाराज चैत्यवासी कैसे बन सकते हैं ? क्या चैत्यवासीके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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