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________________ ( ५९ ) " फेचिदन्त्यमृतमस्ति पुरे सुराणां, केचिद्वदन्ति वनिताधरपल्लवेषु । मो वयं सकलशास्त्रविचारदक्षा जम्बीरनीरपरिपूरितमत्स्यखण्डे ॥ १॥ अर्थ-कितनेक कहते है कि देवलोकमें अमृत है, तो कित.. क कहते हैं कि स्त्रीके ओष्टपल्लवोंमें अमृत है परन्तु सर्वशास्त्रोंके वेचारमें निपुण हम ( तान्त्रिक लोग ) कहते हैं कि-निम्बुके रससे परिपूरित ( भरपूर ) मछलीके खण्डमें ( मछलीके आचारमें ). अमृत रहा है ॥ १ ॥ अब विचार करो ऐसे अधम तान्त्रिकजनोंका असर अपने ( जैनके ) साधुओं पर होना कैंसे माना जावे ।। हां, यदि अपने ग्रन्थों में भी ऐसा विषय आता तो वेचरदासका कहना ठीक था, परन्तु अपने ग्रन्थों में तो ऐसे कुकर्म करनेवालोंको अधोगतिकी प्राप्ति लिखी हैं । इस लिये तान्त्रिकयुगका असर जैन साधुओं पर हुआ ऐसा कहना महामृषावाद है। बस सिद्धः हुवा . कि- देवद्रव्य शब्दका तान्त्रिकयुगसे कुछ भी संबन्ध नहीं है । क्या कोइभी ऐसे तान्त्रिक ग्रन्थको बेचरदास बता सकता है ! कि जिसमें देवद्रव्यके भक्षणसे घोर नरकगतिकी प्राप्ति लिखी हो, और उसके रक्षणसे स्वर्गादि संपत् प्राप्तिका जिकर होवे, “ आ. शब्द तान्त्रिक युगमां आपणा केटलाक साधुओए दाखिल कीघो छे" बस इस कथनसेही वेचरदासको कितना ज्ञान है इस बातकी कसोटी हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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