SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (80) 1 व्याख्या —— सिद्धार्थकाः सर्षपाः । दधि च प्रतीतं । अक्षताश्व तण्डुलाः । दध्यक्षतम् । गोरोचना गोपित्तजा । एतेषां द्वन्द्वोऽतस्तदा दिभिरेतत्प्रभृतिभिः । आदिशब्दाच्छेशमङ्गल्य वस्तुपरिग्रहः । यथालाभं यथासंपत्ति । काञ्चनमौक्तिकरत्नादिदामकैश्च कनकमुक्ताफलमाणिक्यमालाभिश्च विविधै बहुप्रकारैः । - भावार्थ- - सिद्धार्थ - दहि- गोरोचन आदि करके तथा सोना, मोती, रत्न आदि मालाओं करके विविधप्रकार से पूजा करनी ॥ १५ ॥ अत्र पाठक जगको विचार करना चाहिये कि हरिभद्रसूरि और अभयदेवसूरि महाराज के किये हुए मूल तथा टीकाके वचनानुसार प्रभुको सोना - मोती - हीरे आदि जो चढ़ाये जावें वे देवद्रव्य नहीं तो और क्या ? बस साबित हुवा कि हरिभद्रसूरि महाराज और अभयदेवसूरि महाराज देवद्रव्य की बातको स्वीकार करते थे । फिर आगे चलकर प्रतिष्ठाप्रकरणनामके आठवें पञ्चाशक में हरिभद्रसूरि महाराज फरमाते हैं कि 66 उक्कोसिया य पूजा, पहाणदव्वेहिं एत्थ कायन्त्रा । ओसहिफलवत्यसुवण्णमुत्तरयणाइएहिं च ।। २९ ।। " श्री अभयसूरिकृता व्याख्या - उत्कर्षिका उत्कर्षवती । चशब्दः पुनरर्थः । पूजा पूजनमर्हद्भिम्बस्य प्रधानद्रयः प्रवरपूजाङ्गैश्चन्दनागरुकर्पूरपुप्पादिभिः । अत्राऽधिवासनाऽवसरे । कर्त्तव्या विधेया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy