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________________ (३०) समालोचक-जिनद्रव्यसे अनेक जैन मंदिर बन सकते हैंइस लिये जहां जहां पर जिन मन्दिर हो वहांके लोग प्रभुदर्शन और पूजनसे अपने दर्शन ( सम्यक्त्र ) को शुद्ध कर सकते हैं और उनकी निरंतर भक्ति और ; महोत्सवादि कार्यको देखकर बहुतसे भद्रिकप्रकृतिवाले जीव सुधर जाते हैं-बस यही जिनप्रवचनवृद्धिका कारण सिद्ध हुवा तथा प्रभुभक्तिसे ज्ञानावरणीयकर्मके क्षयोपशमसे ज्ञानकी वृद्धि होति है। तटस्थ-अच्छा, देवद्रव्यका रक्षक तो तीर्थकर गोत्र नाम कर्म उपार्जन करता है परन्तु देवद्रव्यके निषेधक या भक्षकों की क्या गति होगी? समालोचक-उसी ग्रन्थके अंदर पूर्वोक्तआचार्यमहाराज लिखते हैं कि जिणपवयणवुद्धिकरं, पभावगं नाणदंसणगुणाणं भकरकंतो जिणदव्वं, अणंतसंसारिओ होइ ।। ६७ ।। भक्खेई जो उवेक्खेइ, जिणदव्वं तु सावओ। पन्नाहीणो भवे सोउ, लिप्पेइ पावकम्मुणा ॥ ६८ ॥ अर्थ-जिनप्रवचनकी वृद्धि करनेवाला तथा ज्ञान दर्शन गुणोंका प्रभाक्क ऐसे देवद्रव्यको भक्षण करनेवाला अनन्तसंसारी होताहै, उपलक्षणसे. उसके निषेधकरनेवालेकोभी उत्सूत्रभाषी होनेके कारण अनन्तसंसारी समझना चाहियेः ॥ ६७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003135
Book TitleDevdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
PublisherSha Sarupchand Dolatram Mansa
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Devdravya
File Size7 MB
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