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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन करते हैं, वह अहिंसा ही है । पर सच तो यह है कि चाहे कार्य निष्काम-फल-प्राप्ति की इच्छा-रहित हो, चाहे सकाम-फल-प्राप्ति की इच्छा-सहित, जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष में हिंसा छिपी हुई रहती है, वह काम हिंसात्मक ही है। यह क्या यक्ति की बात है कि मनुष्य अपनी सुविधा के लिए जो कोई भी हिंसायुक्त कार्य करता है, वह तो हिंसात्मक मान लिया जाता है और वही काम वही मनुष्य यदि दूसरों की सुविधा के लिए करता है, वह अहिंसात्मक हो जाता है। हिंसात्मक काम हिंसात्मक ही रहेगा, चाहे वह अपने लिए किया जाय या दूसरों के लिए। यह भी नहीं कहा जा सकता कि व्यक्तिगत कार्यों में स्वार्थ रहता है और समष्टि में स्वार्थ नहीं रहता। खैर, दो क्षण के लिए स्वार्थ न भी माने अर्थात् लौकिक दृष्टि से परमार्थ मान लें तो भी इसका हल नहीं निकलता। क्योंकि हिंसा का सम्बन्ध केवल स्वार्थ से ही तो नहीं, राग, द्वेष, मोह, व्यामोह आदि अनेक भावनाओं से उसका सम्बन्ध रहता है । जैसे व्यक्तिगत स्वार्थ को त्यागकर अपने राष्ट्र की स्थिति को अनुकूल बनाने के लिए कोई यह उचित समझे कि जितने बच्चे जन्मते हैं, उनमें से आधे मरवा दिए जाएं। राष्ट्र के सुधार की ऐसी भावना से वह ऐसा करने में सफल भी हो जाता है। राष्ट्रीय दृष्टिकोण से उक्त कार्य न तो राग से किया जाता है और न द्वेष से एवं न व्यक्तिगत स्वार्थ से । वह केवल राष्ट्र को सुदृढ़ एवं सुव्यवस्थित करने के लिए ही किया जाता है, इसलिए यह सब निष्काम सेवा की परिधि में आ जाता है। इस प्रकार और भी अनेक कार्य हैं जो समष्टि की सुविधाओं के लिए किए जाते हैं और उन्हें निष्कामता की सीमा में घुसेड़कर अहिंसात्मक बताया जाता है परन्तु जिन कार्यों में प्रत्यक्ष रूप से हिंसा के कारण विद्यमान हैं, वे काम न तो निष्कामता की कोटि में समाविष्ट किए जा सकते हैं और न अहिंसा की कोटि में। ___ जैन सिद्धान्तों में भी निष्कामता का विधान है पर वह धार्मिक क्रिया के सम्बन्ध में । धार्मिक क्रिया का जितना उपदेश है, उसके साथ-साथ यह बताया गया है कि 'धर्म केवल आत्म-शुद्धि के लिए करो। ऐहिक या पारलौकिक सुखों के लिए नहीं।' धार्मिक क्रिया के साथ पौद्गलिक सुखों की इच्छा करना 'निदान' नाम का दोष है । इस सम्बन्ध में यह एक खास ध्यान देने की बात है कि प्रत्यक्ष या परोक्ष में राग, द्वेष, स्वार्थ आदि भावनाओं से मिश्रित जितने भी काम हैं, उनको अधिक आसक्ति या कम आसक्ति से किए जाने से उससे होने वाले बन्धन में अन्तर अवश्य आ जाता है, पर वे बन्धन से मुक्त करने वाले नहीं हो सकते। जैसे-एक हिंसात्मक काम को दो व्यक्ति करते हैं। एक उसे अधिक आसक्ति से करता है और दूसरा उसे कम आसवित से। अधिक आसक्ति से करने वाले के कर्म का बन्धन दढ़ होता है और कम आसक्ति से करने वाले के शिथिल । पर यह नहीं हो सकता कि कम आसक्ति से हम जो कुछ भी करते हैं, उसमें कर्म का बन्ध होता ही नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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