SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ६५ असंयमी का खाना, लेना और देना–तीनों असंयम हैं। तात्पर्य यह है कि विरति से पहले शरीर-पोषण की प्रवृत्तियां अहिंसक नहीं होती। असंयम का पोषण हिंसा का पोषण है। यह मोक्ष-मार्ग नहीं हो सकता। मोक्षमार्ग संयम है। संयमी छह काय या जीवनिकाय मात्र के प्रति संयम रखता है। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा है-अहिंसा निउणं दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमोसर्व भूतों के प्रति जो संयम है, वह अहिंसा है। संयमी छह काय के प्रति संयत रहता है। या जो छह काय के प्रति संयत रहे, वही अहिंसक है। असंयम पोषण का अर्थ है-छह काय की हिंसा को प्रोत्साहन देना। यह वृत्ति छह काय के प्रति मैत्री, अहिंसा या दया कैसे हो सकती है ? अहिंसा और हिंसा के निर्णायक कोण प्राणी मात्र का जीवन सक्रिय होता है। किया अच्छी हो चाहे बुरी, उसका प्रवाह रुकता नहीं। उसकी अच्छाई या बुराई का मानदण्ड भी एक नहीं हैं। जनसाधारण की और धार्मिको की परिभाषा में मौलिक भेद रहता है, कारण कि जनसाधारण का दृष्टिकोण लौकिक होता है और धार्मिको का दृष्टिकोण आध्यात्मिक । लोक-दृष्टि से किसी भी क्रिया को नितान्त अच्छी या बुरी कहना एकमात्र दुःसाहस है । जन-साधारण की रुचि एवं अरुचि पर नियंत्रण करना शक्ति से परे है। 'विभिन्नरुचयो लोका:'----यह सिद्धान्त तथ्यहीन नहीं है। लोक मत में परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव का आवेग होता है। उसके अनुसार रुचि-अरुचि में भी परिवर्तन आ जाता है। सामान्य स्थिति में प्रत्येक मनुष्य की रक्षा करना धर्म माना जाता है । युद्धकाल में शत्रुओं की हत्या करना परम धर्म माना जाता है। लोक-रुचि में आपत्ति-काल, स्वार्थ, ममत्व, अज्ञान, आवेश, मोह-ऐसे और भी अनगिनत कारण अहिंसा के स्वरूप-विकृति के हेतु बनते हैं । आपत्ति-काल में हिंसा अहिंसा बन जाती है। मोह होता है और उसे दया का रूप दिया जाता है। अज्ञानवश बहुत सारे लोग हिंसा और अहिंसा का स्वरूप भी नहीं समझ पाते। ___ आध्यात्मिक दृष्टिकोण के सामने रुचि एवं अरुचि का प्रश्न नहीं उठता, उसमें वस्तु-स्थिति का अन्वेषण करना होता है। जब अच्छाई और बुराई का मानदण्ड रुचि-अरुचि नहीं रहता तब हमें उसके लिए एक दूसरा मानदण्ड तैयार करना पड़ता है। फिर उसके द्वारा हरेक काम की अच्छाई और बुराई को मापते हैं। वह मापदण्ड है संयम और असंयम । दूसरे शब्दों में कहें तो त्याग और भोग । इसके अनुसार हम संयममय क्रिया को अच्छी कहेंगे और असंयममय क्रिया को बुरी। दार्शनिक पंडितों के शब्दों में अच्छी क्रिया को असत्-प्रवृत्ति-निरोध और सत्प्रवृत्ति तथा बुरी क्रिया को असत्-प्रवृत्ति कहना होगा। असत्-प्रवृत्ति का नाम हिंसा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy