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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन स्थूल वृत्ति के आधार पर नहीं किया जा सकता। उसके लिए सूक्ष्म संस्कारों की तह में पहुंचना होता है। १०. मोक्ष की साधना के लिए पहाड़ से गिरकर मरने वाले की भावना क्या खराब है ? उसका वैसा ही विश्वास है। और इस कोटि के बहुत सारे अकाम मरण हैं। बहुत सारे आदमी मोक्ष मिल जाए-इस भावना से अज्ञान-कष्ट सहते हैं। आखिर सूक्ष्म संस्कारों को पकड़े बिना स्थूल विचार के आधार पर शुद्ध या अशुद्ध भावना की कोई परिभाषा ही नहीं बनती। ११. जैन आगमों के अनुसार कहा जा सकता है-अविरतिजनित संस्कार और उन संस्कारों द्वारा उत्पन्न होने वाली भावना या वृत्ति आत्म-मुक्ति की दृष्टि से शुद्ध नहीं हो सकती। १२. सर्वविरति सुप्त (प्रमाद-दशापन्न) होते हैं, तभी उनके शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-ये पांच जागृत होते हैं, यानी कर्म-बन्ध के कारण बनते हैं। वे जागृत होते हैं, तब उनके ये पांचों सोए हुए रहते हैं, यानी कर्मबन्ध के कारण नहीं बनते। असंयती मनुष्य के सुप्त और जागृत-दोनों दशाओं में शब्दादि पांचों जागृत रहते हैं-कर्म-बन्ध के कारण बने रहते हैं। यह अविरति और विरति की भेद-रेखा है। इसे समझ लेने पर तेरापंथ का समूचा दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है । १३. आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है आस्रवो भवहेतुः स्यात्, संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमार्हती दृष्टिः, सर्वमन्यत् प्रपंचनम् ।। वैसे ही आचार्य भिक्षु की भावना को इन शब्दों में रखा जा सकता है : अविरतिर्भवहेतु: स्यात्, विरतिर्मोक्षकारणम् । इतीयमार्हती दृष्टि, सर्वमन्यत् प्रपंचनम् ।। असंयमी व्यक्ति के जीवन-निर्वाह से असंयम के सूक्ष्म संस्कार जड़े हए होते हैं, इसलिए वह धर्म नहीं माना जाना चाहिए। धर्म नहीं, वहां पुण्य नहीं बंधता। योग की प्रवृत्ति धर्ममय होती है, उसी काल में योगजनित कर्म पुण्य रूप बंधता है, शेष काल में नहीं । इसलिए असंयमी-जीवन बनाए रखने की वृत्ति (स्थूल वृत्ति) भले ही करुणा की हो, धर्म या पुण्य का निमित्त नहीं बनती। १४. वस्तु और व्यक्ति के साथ जिस रूप में हमारी वृत्ति जुड़ती है, उसी रूप में उसके पीछे हमारे सूक्ष्म संस्कार सक्रिय रहते हैं। इसलिए प्रत्येक क्रिया के मूल्यांकन में वस्तु और वृत्ति के सम्बन्ध को भुलाया नहीं जा सकता। जो बात वस्तु के लिए है, वही व्यक्ति के लिए होगी। वस्तु जैसे धर्म-अधर्म नहीं होती, वैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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