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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ५६ वृत्ति, व्यक्ति और वस्तु का सम्बन्ध १. कर्म अपना किया हुआ होता है, परकृत या उभयकृत नहीं होता। कर्म का नाश भी अपना किया हुआ होता है, परकृत या उभयकृत नहीं होता। २. कर्म के दो रूप हैं---एक पुण्य, दूसरा पाप और कर्म-विलय का रूप है--निर्जरा, जो धर्म है। पवित्र काय-चेष्टा, वाणी और अन्तःकरण से पुण्य बंधता है और अपवित्र काय-चेष्टा, वाणी और अन्तःकरण से पाप । पुण्य-बन्ध का कारण उक्त तीन कारणों के अतिरिक्त और कोई नहीं है । पाप-बन्ध में उक्त कारणों के सिवा चार और कारण हैं : (१) मिथ्या-दर्शन, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय, ३. पुण्य-पाप की कारण-सामग्री विवाद-स्थल नहीं है। विवाद का विषय है-पवित्र-अपवित्र की चर्चा । पवित्र-अपवित्र की मान्यता ऐकान्तिक नहीं हो सकती। वह सापेक्ष है । एक दृष्टि से जो वृत्ति पवित्र होती है, वह दूसरी दृष्टि से अपवित्र। इसलिए एक ही दष्टि से किसी भी वृत्ति को पवित्र या अपवित्र नहीं कहा जा सकता। विवाह का संकल्प गृहस्थाश्रम की दृष्टि से पवित्र है किन्तु ब्रह्मचर्याश्रम की दृष्टि से वह पवित्र नहीं है। विवाह को अपवित्र कहना गृहस्थाश्रम के बंधे हुए संस्कारों में उभार लाता है और उसे समग्र-दृष्टि से पवित्र कहना ब्रह्मचर्य की निष्ठा को तोड़ने जैसा है। इसलिए एकान्तवादी विचार का समाधान उनकी अपनी-अपनी मर्यादा में ढंढ़ना चाहिए। विवाह अपनी मर्यादा में अपने आश्रम की दृष्टि से पवित्र हैइतना ही बस है। यह इससे आगे बढ़ा कि संघर्ष हुआ। मर्यादा-भेद या भूमिकाभेद को समझे बिना संघर्ष टलने का कोई रास्ता ही नहीं दीखता। ४. वृत्ति का पहला रूप ज्ञान है । वह न पवित्र होता है और न अपवित्र । वह ज्ञानावरण का विलय-भाव है। उससे कर्म का बन्ध या विलय कुछ भी नहीं होता। वही ज्ञान संस्कारों से भावित होकर वृत्ति या भावना बनता है, तब उसके पवित्र और अपवित्र-ये दो रूप बन जाते हैं। इसलिए भावना या अन्तःकरण को पवित्र या अपवित्र कहने या मानने के पहले उसके पवित्र और अपवित्र होने के हेतु को ढूंढ़ निकालना चाहिए। हेतु की छानबीन में अगर हमने एकान्त-दृष्टि का आश्रय लिया तो निर्णय सही नहीं आएगा। विचार के विषय की मर्यादा को सापेक्ष दृष्टि से ध्यान में रखकर ही उसे ढूंढ़ना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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