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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन ५१ सुख चाहने योग्य वस्तु है। इसलिए सुख की प्राप्ति करना नैतिक आचरण का आदर्श होना चाहिए।' ___ आचार्य भिक्षु के विचारानुसार हेतु और कार्य में सार्वदिक और सार्वत्रिक एकरूपता नहीं होती। कार्य का परिणाम जो अनन्तर या निश्चय-दष्टिपरक होता है, वह स्पष्ट जान नहीं पड़ता। और प्रासंगिक परिणाम जान पड़ते हैं, वे कार्य के साथ निश्चित सम्बन्ध नहीं रखते-व्याप्त नहीं होते । इसलिए हेतु और परिणाम, ये दोनों उसकी कसौटी नहीं बनते । __कार्य की कसौटी उसके स्वरूप का विवेक ही है । कार्य जैसे सहेतुक होता है, वैसे निर्हेतुक भी होता है। हेतु यदि कार्य की कोटि का निर्णायक हो तो सहज भाव से होने वाले कार्य की कोटि का निर्णायक फिर कौन होगा ? इसलिए कार्य के स्वरूप का विवेक ही उसकी कोटि का निर्णायक हो सकता है। कार्य अमुक कोटि का है-अध्यात्मिक, नैतिक, राजनैतिक, सामाजिक या असामाजिक है-- ऐसा निर्णय होने पर उसकी अच्छाई, बुराई, उपयोगिता, अनुपयोगिता का निर्णय सापेक्ष होता है । सभी दृष्टियों से या अपेक्षाओं से कोई भी कार्य अच्छा या बुरा नहीं होता। किसी भी कार्य को अच्छा या बुरा कहने के पीछे एक विशेष दृष्टि या अपेक्षा होती है । चोर अपने सुख के लिए चोरी करता है । उस द्वारा कल्पित सुख की दृष्टि से चोरी बुरी नहीं है, चोरी बुरी है आदर्श की दृष्टि से । सुख की चाह प्राणी की मनोवृत्ति है । वह आदर्श का मानदण्ड नहीं है। 'केवल वस्तुस्थिति के आधार पर आदर्श का निश्चय नहीं किया जा सकता। जहां पर आदर्श का निश्चय होता है, वहाँ पर मनुष्य को वस्तुस्थिति के स्तर से ऊंचा उठना पड़ता है। अतएव केवल मनोविज्ञान के आधार पर मनुष्य के नैतिक आचरण का मापदण्ड निश्चित करना अनुचित है। कर्तव्यशास्त्र में प्रधान बात यह नहीं है कि मनुष्य क्या करना चाहता है, वरन् प्रधान बात यह है कि उसे क्या करना चाहिए । मनुष्य में सुख की चाह अवश्य है परन्तु उसमें इस चाह को नियंत्रित करने की योग्यता भी है । वह अपने विवेक के द्वारा सुख की चाह को नियंत्रित कर सकता है।" __ जिस कार्य का हेतु पवित्र होता है, वह कार्य पवित्र ही है-यह एकांगी हेतुवाद भी निर्दोष नहीं है । हेतु की पवित्रता मात्र से कार्य पवित्र नहीं बनता। कार्य हेतु की पवित्रता के अनुरूप ही हो, तभी पवित्र बनता है। जैसा हेतु वैसा ही कार्य-यह हेतु और कार्य की जो अनुरूपता है, वही कार्य की कसौटी है। उदाहरणस्वरूप-अहिंसा का आचरण आध्यात्मिक कार्य है। उसका हेतु है -आत्म १. नीतिशास्त्र, पृ० २४, २५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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