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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन भविष्य में अपने नाश की शंका करके मार डाला था।' बहुत से अपने संबंधी के घात के क्रोध से प्राणियों का घात करते हैं, जैसे परशुराम ने अपने पिता के घात से क्रोधित होकर कार्तवीर्य का वध किया था । बहुत से व्यक्ति सिंह, सर्प आदि प्राणियों का वध इसलिए कर डालते हैं कि यह जीवित रहकर दूसरे प्राणियों का वध करेगा। इस प्रकार जो पुरुष किसी त्रस या स्थावर प्राणी की स्वयं घात करता है दूसरों से करवाता है, अथवा प्राणीघात करते हुए को अच्छा मानता है, उसको हिंसा हेतुक क्रिया से पाप-कर्म का बंध होता है।' ४. अकस्मात्-दण्ड किसी प्राणी की घात करने के अभिप्राय से चलाए हुए शस्त्र के द्वारा यदि दूसरे प्राणी का वध हो जाए तो उसे अकस्मात-दण्ड कहते हैं। क्योंकि घातक व्यक्ति का उस प्राणी की घात का आशय न होने पर भी अचानक उसकी बात हो जाती है। ऐसा देखने में भी आता है कि मृग का वध कर अपनी जीविका करने वाला व्याध मृग को लक्ष्य कर बाण चलाता है परन्तु वह बाण कभी-कभी लक्ष्य से भ्रष्ट होकर मृग को नहीं लगता किन्तु दूसरे पक्षी आदि को लग जाता है । इस प्रकार पक्षी को मारने का आशय न होने पर भी उस घातक के द्वारा पक्षी आदि का वध हो जाता है। अतः यह अकस्मात्-दण्ड कहलाता है। किसान जब अपनी खेती का परिशोधन करता है, उस समय धान्य के पौधों की हानि करने वाले तृणों को साफ करने के लिए वह उनके ऊपर शस्त्र चलाता है। परन्तु कभी-कभी उसका शस्त्र घास पर न लगकर धान्य के पौधों पर ही लग जाता है जिससे धान्य के पौधों की घात हो जाती है । किसान का आशय धान्य के पौधों का छेदन करने का नहीं होता, फिर भी उससे धान्य के पौधों का छेदन हो जाता है। इसे अकस्मात्-दण्ड कहते हैं । अतः मारने की इच्छा न होने पर भी यदि अपने द्वारा चलाए हुए शस्त्र से कोई अन्य प्राणी मर जाए तो अकस्मात्-दण्ड देने का पाप होता है। ५. दृष्टि-विपर्यास-दण्ड अन्य प्राणी के भ्रम से अन्य प्राणी को दण्ड देना दृष्टि-विपर्यास-दण्ड कहलाता है । जो पुरुष मित्र को शत्रु के भ्रम से तथा साहूकार को चोर के भ्रम से दण्ड देता १. सूत्रकृतांग २।२।१६ २. वही, २।२।२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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