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________________ अहिंसा तस्व दर्शन जीव-वध आत्मा-वध है और जीव-दया आत्मा-दया । इसलिए आत्मार्थी पुरुष सब जीवों की हिंसा को त्याग देता है।' आत्म-गुण का हनन करने वाला वस्तुतः हिंसक होता है और आत्म-गुण की रक्षा करने वाला अहिंसक । वीतराग और अवीतराग संयमी जो अप्रमत्त दशा में है, उसके द्वारा अपरिहार्य प्राण-वध हो जाए वह प्राण-वध है, किन्तु वास्तव में हिंसा नहीं। __ इन तथ्यों से साफ हो जाता है कि प्राण-वध और हिंसा सर्वथा एक नहीं हैं। इसी दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति के लिए अहिंसा शब्द व्यवहार में आया-ऐसा प्रतीत होता है। अहिंसा शब्द हिंसा का निषेध है। हिंसा सदेह-दशा में होती है और अहिंसा भी उसी में। विदेह-दशा में हिंसा और अहिंसा की कोई कल्पना ही नहीं होती। हिंसा बन्धन या सदेह-दशा का हेतु है और अहिंसा मुक्ति या विदेह-दशा का । मुक्ति होने के बाद अहिंसा आत्मा की शुद्धि रूप रह जाती है, साधना रूप नहीं। फिर उसका कोई कार्य नहीं रहता। इसलिए उसकी कोई कल्पना भी नहीं होती। मुक्ति का धर्म है-हिंसा का निषेध। इसीलिए मोक्ष-धर्म का स्वरूप नकार की भाषा में कहा गया। महात्मा गांधी ने इस पर बड़े सुन्दर ढंग से लिखा है'मानवों में जीवन-संचार किसी न किसी हिंसा से होता है। इसलिए सर्वोपरि धर्म की परिभाषा एक नकारात्मक कार्य अहिंसा से की गई है। यह शब्द संहार की संकड़ी में बंधा हुआ है। दूसरे शब्दों में यह है कि शरीर में जीवन-संचार के लिए हिंसा स्वाभाविक रूप से आवश्यक है। इसी कारण अहिंसा का पुजारी सदैव प्रार्थना करता है कि उसे शरीर के बन्धन से मुक्ति प्राप्त हो। __ सदेह जीवन तीन प्रकार का होता है-हिंसा का, हिंसा के अल्पीकरण का और अहिंसा का। हिंसा के जीवन में हिंसा-अहिंसा का विवेक ही नहीं होता। हिंसा के अल्पीकरण के जीवन में हिंसा को कम से कम करने का प्रयत्न किया जाता है । अहिंसा के जीवन में हिंसा का पूरा त्याग किया जाता है। हिंसा के प्रकार हिंसा मात्र से पाप-कर्म का बन्ध होता है, इस दृष्टि से हिंसा का कोई प्रकार नहीं होता। किन्तु हिंसा के कारण अनेक होते हैं, इसलिए कारण की दृष्टि से उसके प्रकार भी अनेक हो जाते हैं। कोई जान-बूझकर हिंसा करता है तो कोई अन १. भक्त परिज्ञा प्रकीर्णक-६३ २. महात्मा गांधी के विचार (५-१३८), सी० एफ० एण्ड्रजू । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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