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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन अल्प-परिग्रह वाला रह जाता है। गहस्थ-जीवन सर्वथा अहिंसा और अपरिग्रह वाला तो नहीं हो सकता। शेष विकल्प दो रहते हैं : १. महाहिंसा और महापरिग्रह वाला जीवन । अथवा २. अल्पहिंसा और अल्पपरिग्रह वाला जीवन । महा-हिंसा और महा-परिग्रहात्मक जीवन वाला व्यक्ति धर्म को नहीं पा सकता । इसलिए वैसा जीवन धर्म के लिए अयोग्य है । गृहस्थ का वही जीवन श्रेष्ठ है जिसमें हिंसा और परिग्रह का अल्पीकरण हो। इस भावना को दो प्रकार से रखा जाता है : पहला प्रकार-कम-से-कम हिंसा ही सर्वोच्च जीवन है। इस प्रसंग में काका कालेलकर की एक घटना उल्लेखनीय है। उन्होंने लिखा है.---"एक समय मैं फ्रेंच लेखक पाल रिशार के साथ उसका ‘स्कर्ज ऑफ क्राइस्ट' पढ़ रहा था। उसमें उसने बाइबिल के अनेक वाक्य और कुछ घटनाएँ लेकर अनेक शब्दों और अर्थ की क्रीड़ा करके अपना तत्त्वज्ञान मोहक ढंग से रखा है। वह लेखक विद्वान् तथा चतुर है, इसलिए वह हर एक बात में चमत्कृति ला सकता है । पढ़ते-पढ़ते एक ऐसा वाक्य आया कि Living is Killing. जीने का मतलब है-मारना । मैंने तुरन्त ही उसे कहा-This is half the truth because it is a mere statement of a universal fact. The fact of life is not to give you the universal law of life. You must therefore here add Killing the least is living the best.' यह तो अर्द्ध-सत्य हुआ क्योंकि एक सार्वत्रिक सिद्धान्त का यह केवल एक विधान है । जीवन के सिद्धान्त मात्र से जीवन का सार्वत्रिक धर्म निकाला नहीं जा सकता। इसलिए आपको यहाँ इतना बढ़ा देना चाहिए कि कम-से-कम मारना ही उत्तम से उत्तम जीना है । पाल महाशय ने यह सुधार तुरन्त स्वीकार कर लिया और उसका फ्रेंच करके अपनी पुस्तक में लिख लिया। -जीना यानी मारना, यह प्राकृतिक नियम है, लेकिन वह मानव-जीवन का धर्म नहीं हो सकता। जीवन-धर्म कहता है कि 'कम से कम मारना' यह उत्तम से उत्तम प्रकार से जीने के बराबर है। न मारने की ओर, सबको बचाने की ओर, सबको अभय-दान देने की ओर हृदय को उत्कटता से मोड़ना जीवन का रहस्य है।' दूसरा प्रकार - हिंसा की अधिक से अधिक विरति ही श्रेष्ठ जीवन है अथवा हिंसा की अधिक से अधिक कमी ही श्रेष्ठ जीवन है। दोनों भावनाएं समान हैं। भेद है-शब्द-रचना का। हिंसा कम-से-कम हो-इसमें हिंसा की कमी की भावना होते हुए भी शब्द-रचना हिंसा के अनुमोदन की है। अनिवार्य हिंसा को १. जैन भारती, अंक ४४, पृ० ८६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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