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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन २०४ रखते हैं, हिंसा को यहां और आगे अशान्ति बढ़ाने वाली मानते हैं। जिन्हें आगामी जीवन से कोई लगाव नहीं, चाल जीवन में हिंसा द्वारा सुविधाएं सुलभ होती हैं, तब उन्हें हृदय-परिवर्तन की बात कैसे रुचे? भौतिक सुख-सुविधाएं ही जिनका चरमसाध्य है, वे अहिंसा को क्यों महत्त्व दें। यह धूप जैसा साफ है, अधिक चोरबाजारी करने वाले अधिक धनी बने। भलाई को लिए बैठे रहे, वे मुंह ताकते रह गए। दुनिया धन से बिक चुकी। चोरबाजार करने वाले बड़े हैं। भलों को पूछे कौन ? उनके पास वैसा कुछ है भी नहीं। वे न किसी को नौकरी दे सकते, न रिश्वत, न सहायता, न चन्दा, न प्रीतिभोज और न और-और । कहिए, दूसरे भले क्यों बनें? आखिर उन्हें भला बनने से क्या लाभ ? भलाई के साथ सहानुभूति है ? पुराने संस्कार शब्दों में उतर आते होंगे, आचरण में तो नहीं हैं। भलाई को प्रोत्साहन कैसे मिले ? जो दुनियावी बातों से लगाव रखते हैं, एषणाओं में रस लेते हैं; यज्ञ, प्रतिष्ठा, संतान और सुविधाएं चाहते हैं; वे भले नहीं बन सकते। भले आदमी उस दुनिया के प्राणी हो सकते हैं, जिन्हें इन बातों से कोई लगाव नहीं । पदार्थ की, मान-सम्मान की, बड़प्पन की निरपेक्षा विरक्ति से आती है। विरक्ति मोह के न्यून होने से आती है और मोह की न्यूनता, आत्मा और पुद्गल (चेतन और अचेतन) का भेद जानने से होती है। हृदय-परिवर्तन का असली रूप यही निरपेक्षता है। सामाजिक जीवन रहा सापेक्ष । निरपेक्षता है-वैयक्तिक जीवन की स्थिति । एक सामाजिक व्यक्ति उसे कैसे स्वीकार कर ले ? इस बिन्दु पर विचार रुक जाता है। वर्तमान समस्याओं का मूल यही लगता है। सापेक्षता के एकांगी स्वीकार से कठिनाइयां बढ़ती हैं। सापेक्षता से स्पर्धा, स्पर्धा से हिंसा और हिंसा से अशान्ति-यह क्रम चल रहा है। हिंसा को प्रयुज्य मानने वाले भी शान्ति में विश्वास रखते हैं, विसैन्यीकरण या सैन्य के अल्पीकरण और निरस्त्रीकरण की चर्चा करते हैं। तब लगता है-हिंसा में उनका विश्वास तो नहीं है। वे उसे अच्छी भी नहीं समझते । वे सिर्फ विवशता की स्थिति में उसके प्रयोग का समर्थन करते हैं। जैसे-कई धार्मिक सम्प्रदायों ने 'आपद्-धर्म' के रूप में हिंसा का समर्थन किया। रूप में थोड़ा अन्तर है; भावना में शायद नहीं। आपद्-धर्म आक्रमण के प्रतिकार के लिए हिंसा का समर्थन करता है और आज का नयावाद जीवन की अव्यवस्था के प्रतिकार के लिए। आखिर हिंसा जो सबके लिए खतरा है; उत्तम मार्ग तो हो ही नहीं सकता। हिंसा करने वाले के विरुद्ध भी तो हिंसा बरती जा सकती है। हिंसा बुराई का प्रतिकार नहीं, बुरे व्यक्ति का प्रतिकार है । बुरा कौन नहीं ? न्यूनाधिक मात्रा में सब बुरे हैं । हृदय-परिवर्तन का मार्ग है-बुराई मिटे, बुरे-भले बन जाएं । व्यक्ति को मिटाने की परम्परा गलत है। मिटाने की जो प्रकृति बन जाती है, वह फिर बुरा-भला नहीं देखती। अपने को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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