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अहिंसा तत्त्व दर्शन
निवृत्ति' । निवृत्ति का अर्थ केवल प्रवृत्ति का निषेध ही नहीं किन्तु प्रवृत्ति के रागांश या द्वेषांश का वर्जन भी है— इसीलिए निवृत्त्यात्मक अहिंसा को निठल्लों का हथियार नहीं कहा जा सकता । सक्रिय अहिंसा जीवन की कुछ - एक घड़ियों में होती है । निष्क्रिय अहिंसा का उपयोग जीवन के प्रत्येक क्षण में किया जा सकता है, किन्तु उसका उपयोग वही कर सकता है, जो सच्चा वीर हो । प्रवृत्ति की अपेक्षा सत्प्रवृत्ति दुष्कर है, वैसे ही सत्प्रवृत्ति की अपेक्षा निवृत्ति दुष्कर है ।
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अहिंसा का समग्र रूप
'धर्म पवित्र आत्मा में ठहरता है ।" अहिंसा धर्म है । व्यवहार की भाषा में वह पवित्र आत्मा में उद्भूत होती है । निश्चय की भाषा में आत्मा की स्वाभाविक स्थिति ही पवित्रता है और वही अहिंसा है । स्वाभाविकता का चरम रूप विदेहदशा में प्रकट होता है । यह सिद्ध दशा है । साधना काल में स्वाभावोन्मुख प्रवृत्ति होती है, वह अहिंसा है । उसका दूसरा नाम है - मोक्ष मार्ग । मोक्ष के चार साधन हैं :
१. ज्ञान,
२. दर्शन (श्रद्धा),
३. चारित्र,
४. तप ।
पदार्थों की जानकारी मात्र से न बन्धन होता है और न मुक्ति । ज्ञान सत्य का हो चाहे असत्य का वह स्वभावतया निरवद्य होता है । मन, वाणी और कर्म के साथ संयुक्त होकर वह क्रियात्मक दृष्टि से सावद्य और निरवद्य-दोनों बनता है | मोहरंजित मन, वाणी और कर्म का सहवर्ती ज्ञान सावद्य होता है और मोहविमुक्त मन, वाणी और कर्म का सहवर्ती ज्ञान निरवद्य। वह क्रियात्मक निरवद्य ज्ञान आत्म-मुक्ति का साधन बनता है । अध्यात्मशास्त्र में इसी को सम्यग् ज्ञान कहा जाता है । सत्य की रुचि का नाम है-श्रद्धा । मिथ्या विश्वास हिंसा का ही रूप है । उससे आत्मा आवृत होती है ।
१. जातिवाद - जाति विशेष को अछूत समझना, उससे घृणा करना मानसिक व्यामोह है ।
२. पुत्र पैदा किये बिना स्वर्ग नहीं मिलता ।
१. आत्मानुशासन २३७ : रागद्वेषौ प्रवृत्ति स्याद्, निवृत्तिस्तन्निरोधनम् । २. उत्तराध्ययन ३।१२ : धम्मो सुद्धस्स चिठ्ठई |
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