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________________ १६६ अहिंसा तत्त्व दर्शन सात और असात-ये दोनों अध्रुवबंधी और अधू वोदयी प्रकृतियां हैं। ये दोनों परस्पर विरोधी हैं, इसलिए इनका एक साथ न बन्ध होता है और न उदय । इनकी वेदना भी एक साथ नहीं होती। यद्यपि वेदना' को मिश्र बताया है किन्तु वह व्यावहारिक है, स्थूलकाल की संकलना मात्र है, तात्विक नहीं। जैसाकि टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने लिखा है-'अत्रापि तावन्तं विवक्षितकालमेकं विवक्षितत्वात् सातासातानुभवो युगपत् प्रतिपादितः परमार्थतस्त्वेकव वेदितव्य इति।' ऊपर के सभी प्रमाणों से यही जान पड़ता है कि आत्म-वीर्य (योग) मिश्र नहीं होता। वह मात्र-पुण्यहेतुक या मात्र-पापहेतुक होता है। सकषाय जीवन : एक और अखण्ड वीतराग के पाप का बन्ध होता ही नहीं। उसके केवल पुण्य का बन्ध हेता है। अवीतराग या सकषाय व्यक्ति के पाप का बन्ध निरन्तर होता रहता है। इसीलिए पुण्य-बन्ध के समय भी उसके केवल निर्जरा या केवल पुण्य-बन्ध होता है-- ऐसी मान्यता नहीं है। आचार्य भिक्षु की मान्यता यह है कि कर्तव्य रूप दो कार्य (योग की प्रवृत्ति से बंधने वाले पुण्य-पाप) एक साथ नहीं हो सकते। पुण्य-बंध, जिस प्रवृत्ति का सहचारी है, उससे पाप नहीं बंधता और जिससे पाप-बन्ध होता है, उसके साथ पुण्य का बन्ध नहीं होता। सकषाय जीवन एक और अखण्ड होता तो उसके जैसे पाप का बन्ध निरन्तर और बिना प्रयत्न के भी होता रहता है, वैसे पुण्य का बन्ध भी निरन्तर और सहज ही होता। किन्तु ऐसा नहीं होता। इसलिए कहा जा सकता है कि सकषाय जीवन का प्रत्येक क्षण पुण्य-पाप-मिश्रित नहीं होता। पुण्य-बन्ध के समय मिथ्यात्व आदि की आन्तरिक मलिनता द्वारा सहज पाप बंधता है, इस दृष्टि से वे क्षण मिश्रित कहे जा सकते हैं, किन्तु योगरूप प्रवृत्ति और उसके परिणामस्वरूप वंधने वाले पुण्य-पाप के क्षण मिश्रित नहीं होते। सकषाय जीवन में शुभ योग होता है। उस समय कषाय विद्यमान रहता है पर शुभ योग तज्जनित नहीं होता। वह चारित्र मोह के विलय जनित होता है। योग कषाय से वासित होकर शुभ नहीं होता किन्तु कषाय के यावत् मात्र विलय से वासित होकर वह शुभ होता है। कर्मशास्त्र की भाषा में मोह-कर्म का औदयिक भाव-योग शुभ नहीं होता। किन्तु मोह-कर्म का क्षायोपशमिकभाव-योग शुभ होता है। पुण्य-पाप के हेतु को स्वतंत्र मानने से गुणस्थान की व्यवस्था विशृंखल नहीं बनती। १. प्रज्ञापना ३५॥३२८ : तिविहावेयणा पण्णत्ता तंजहा-साता, असाता, सातासाता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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