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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन माया और लोभ उपशान्त थे । संग्रह नहीं था, इसलिए न चोरी थी, न हिंसा और लड़ाइयां। न कोई विधि-विधान था, न शासन और न कोई व्यवस्था। वे मुक्त और स्वावलम्बी जीवन जीते थे। जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ नया मोड़ आ गया। अब प्राकृतिक वनसम्पदा उनकी आवश्यकता-पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं रही। संघर्ष और छीनाझपटी के अंकुर पनपने लगे। इस परिस्थिति में सामाजिक जीवन और व्यवस्था का सूत्रपात हुआ। प्रारम्भ में कुलों और कुलकरों की व्यवस्था हुई। कृषि, व्यापार और सुरक्षा के प्रवर्तन के साथ-साथ आवश्यकताएं और प्रवृत्तियां दोनों बढ़ गई । ___ जहां अनेक आवश्यकताएं और अनेक प्रवृत्तियां होती हैं, वहां संग्रह-वृत्ति का विकास होता है । संग्रह के परिपार्श्व में हिंसा, असत्य और चोरी को भी विकसित होने का अवसर मिलता है। सामाजिक प्रवृत्तियों के विकास के साथ-साथ हिंसा आदि भी विकसित हुए। हिंसा आदि के विकास से नवनिर्मित समाज में अव्यवस्था फैली, उसे कुलकर नहीं सम्हाल सके । उस परिस्थिति में राजतंत्र का उदय हुआ। दण्ड के द्वारा हिंसा आदि की रोकथाम और व्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न किया गया। यह हिंसा और उसके दमन की आदिम कहानी है । सामाजिक अस्तित्व और अहिंसा जिस दिन मनुष्य समाज के रूप में संगठित रहने लगा, आपसी सहयोग, विनिमय तथा व्यवस्था के अनुसार जीवन बिताने लगा, तब उसे सहिष्णु बनने की आवश्यकता हुई। दूसरे मनुष्य को न मारने, सताने और कष्ट न देने की वृत्ति बनी। प्रारम्भ में अपने परिवार के मनुष्यों को न मारने की वृत्ति रही होगी, फिर क्रमशः अपने पड़ोसी को, अपने ग्रामवासी को, अपने राष्ट्रवासी को, होते-होते किसी भी मनुष्य को न मारने की चेतना बन गई। मनुष्य के बाद अपने उपयोगी जानवरों और पक्षियों को भी न मारने की वृत्ति बन गई। अहिंसा की यह भावना सामाजिक जीवन के साथ-साथ ही प्रारम्भ हुई और उसकी उपयोगिता के लिए ही विकसित हुई, इसलिए उसकी मर्यादा बहुत आगे नहीं बढ़ सकी। वह समाज की उपयोगिता तक ही सीमित रही। ___ सामाजिक जीवन, आवश्यकताओं का विकास और प्रवृत्तियों का विकासयह सामाजिक विकास का प्रवाह-क्रम है। इसमें दो विरोधी धाराएँ विकसित होती हैं। जैसे १. हिंसा और अहिंसा, २. सत्य और असत्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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