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________________ १६४ अहिंसा तत्त्व दर्शन निर्जरा) के समय वह नहीं होता। वह देश निर्जरा के साथ आता है। पुण्य के साथ निर्जरा की व्याप्ति है, निर्जरा के साथ पूण्य की व्याप्ति नहीं है। जहां पुण्य-बन्ध है, वहां निर्जरा अवश्य है। किन्तु जहां निर्जरा है, वहां पुण्य-बन्ध है भी और नहीं भी। अधर्म के सहज रूप चार हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद तथा कषाय। ये चार पाप के हेतु हैं। धर्म के सहज रूप पांच हैं—सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय तथा अयोग। ये पांच पाप और पुण्य दोनों के हेतु नहीं हैं। जीव की एक दशा और बाकी है। वह है योग । विवाद-स्थल यही है। मन, वाणी और शरीर के प्रयत्न मात्र की समष्टि संज्ञा योग है। योग अपने आप में शुभ-अशुभ कुछ भी नहीं है। चार आस्रवों से अनुगत होता है, तब वह अशुभ हो जाता है और सम्यक्त्व आदि से अनुगत होता है, तब शुभ। कर्म-शास्त्र की भाषा में मोह के उदय से प्रेरित हो प्रवर्तने वाला (औदयिक) वीर्य अशुभ और मोह के क्षयोपशम से प्रेरित हो प्रवर्तने वाला (क्षायोपशमिकादि) वीर्य शुभ । शुभ योग से निर्जरा होती है। निर्जरा के समय होने वाला बन्ध पाप का नहीं होता। आत्मा की प्रवृत्ति, स्पन्दन या एजन है, वहां बन्ध अवश्य होता है। किन्तु पुण्य-पाप दोनों का बन्ध एक साथ नहीं होता, सहज रूप से बंधने वाले पाप के साथ-साथ पुण्य भी बंधता है, यह दूसरी बात है। चार आस्रव का पाप-बन्ध निरंतर और सहज होता है। अशुभ योग से बंधने वाला पाप निरन्तर नहीं होता। सहज भी नहीं। वह अशुभ प्रयत्न होने पर ही बंधता है । पुण्य निरन्तर और सहज भाव से नहीं बंधता। उसका बन्ध शुभ प्रयत्न से ही होता है। पुण्य बन्ध होता है, उस समय भी सहज भाव से पूर्ववर्ती चार आस्रव द्वारा पाप बन्ध होता रहता है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि पुण्य और पाप एक साथ भी होते हैं किन्तु प्रवृत्ति रूप में पुण्य-पाप का बन्ध एक साथ नहीं होता। कारण साफ है। प्रवृत्ति रूप पुण्य-पाप के हेतु शुभ-अशुभ योग हैं। वे दोनों एक साथ नहीं होते। योग शुभ या अशुभ होता है, मिश्र नहीं।२ अध्यवसाय की दो ही राशि हैं-१. शुभ २. अशुभ । तीसरी राशि नहीं है। क्रिया दो प्रकार की होती है- सम्यक् और असम्यक् । उसका मिश्र रूप नहीं होता । गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा : १. (क) आवश्यक चूणि २; (ख) नव सद्भाव पदार्थ निर्णय ११६६ २. विशेषावश्यक भाष्य ११३५ : सुभो वाऽसुभोवा सएण समयम्मि। ३. विशेषावश्यक भाष्यवृत्ति ११३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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