SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० अहिंसा तत्त्व दर्शन भगवान् महावीर ने बताया है-प्रमाद-बहुल जीव शुभ और अशुभ कर्म के द्वारा संसरण करता है-जन्म-मृत्यु की परम्परा में बहता है । मोक्ष तब होता है, जब शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के बन्धन टूट जाते हैं। गीता कहती है-बुद्धिमान् सुकृत और दुष्कृत दोनों छोड़ देता है, यानी मुक्ति दोनों के छूटने से होती है। 'पुण्य की इच्छा करना पाप है।"-आचार्य भिक्षु की यह वाणी बहुत गम्भीर अर्थ लिए हए है । अध्यात्मवाद का चरम साध्य है-मोक्ष । मोक्ष का अर्थ है पुण्यपाप से आत्यन्तिक मुक्ति। मोक्षार्थी जिससे मुक्ति चाहता है, उसी में फंसे यह गलत दिशा है। पुण्य का फल सुख होता है, पाप का फल दु:ख, इसलिए पुण्य और पाप के बन्ध में बहुत बड़ा अन्तर होना चाहिए-ऐसा विचार आ सकता है। किन्तु यह व्यवहार दृष्टि है । परमार्थ-दृष्टि में बात दूसरी होती है । जिनभद्र गणी के मतानुसार—'पुण्य फल तत्वतः दुःख है।'५ आचार्य भिक्षु ने कहा : शेष रह्या काम संसार ना, तिण कीधां बंधसी कर्म । बांछ मरणो जीवणो, ते धर्म तणो नहीं अंश । ए अनुकम्पा कियां थकां, वधे कर्म नो वंश । अनुकम्पा इहलोक री, कर्म तणो बंध होय। ज्ञान, दर्शन, चारित्र बिना, धर्म न जाणो कोय ॥" जिनभद्र गणी कहते हैं- 'परमार्थ दृष्टि में पुण्य-फल अशुभ-कर्म का जनक होने के कारण दुःख ही है।' यहां पहुंचने पर ऐसा लगता है कि दोनों विचारों का निष्कर्ष एक रेखा पर है। इसलिए शब्द की खींचातानी में हमें रस नहीं लेना चाहिए । हम जो तत्त्व देना चाहते हैं, उसे जिस शब्द से लोग सहजतया पकड़ सकें, उसी शब्द को प्रयोग में लाना चाहिए। मोह-दया आत्म-साधना से दूर ले जाती है-इस तत्त्व को पाप शब्द के द्वारा १. उत्तराध्ययन १०।१५ २. वही २११२४ ३. गीता २।५० : बुद्धियुक्तो जहातीह, उभे सुकृतदुष्कृते । ४. नव सद्भाव ३ ५. विशेषाकश्यक भाष्य : २००४-२००५ ६. अनुकम्पा चौपाई, ३।१, दोहा ७. वही, २।१, दोहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy