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________________ १४० अहिंसा तत्त्व दर्शन ३. नहीं छोड़ी जा सकने वाली हिंसा अनिवार्य भले कहलाए पर वह अहिंसा नहीं हो सकती। महात्मा गांधी ने इसे बहुत स्पष्ट शब्दों में समझाया है--'यह बात सच है कि खेती में सक्ष्म जीवों की अपार हिंसा है। कार्य मात्र, प्रवृत्ति मात्र, उद्योग मात्र सदोष है। खेती इत्यादि आवश्यक कर्म शरीर-व्यापार की तरह अनिवार्य हिंसा है। उसका हिंसापन चला नहीं जाता है और मनुष्य ज्ञान, भक्ति आदि के द्वारा अन्त में इन अनिवार्य दोषों से मोक्ष प्राप्त करके इस हिंसा से भी मुक्त हो जाता है। धर्म के लिए जो हिंसा करता है, वह मन्द-बुद्धि है ।२ भगवान् का धर्म सूक्ष्म है, इसलिए 'धर्म के लिए हिंसा करने में दोष नहीं'---यों धर्म-मूढ़ बनकर जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिए । धर्म का स्वरूप ही अहिंसा है। उसके लिए हिंसा की कल्पना ही कैसे हो सकती है ? इसीलिए आचार्य हेमचन्द्र ने इस पर आश्चर्यभरे शब्दों में लिखा है-'अहो! हिंसापि धर्माय, जगते मंदबुद्धिभि।४ । __महात्मा गांधी के शब्दों में हिंसा से मत-रक्षा हो सकती है, धर्म-रक्षा नहीं। वे लिखते हैं : 'धर्म एक व्यक्तिगत संग्रह छे । तेने माणस पोतेज राखी सके छे ने पोतेज खुए छ। समुदाय मांज बचावी सकाय ते धर्म नहीं, मत छ।५। ४. दुःख मिटाने के लिए दुःखी को मार डालने की बात भी अहिंसा की कोटि में नहीं आती। दु:ख-मोचन-सम्प्रदाय का मन्तव्य था-'जिसको दुःख से छूटने की आशा नहीं, वैसे दु:खी या रोगी जीव को मार डालना चाहिए।' महात्मा गांधी की बछड़े को मार डालने वाली घटना भी लगभग वैसी ही है। जैन-विचार इससे सहमत नहीं। कई जैन करुणा को परम धर्म मानने लगे हैं, उनकी बात मैं नहीं कह सकता। उनको उक्त कार्य में आपत्ति हो ही नहीं सकती। मारने वाला केवल अनुकम्पा की बुद्धि से मारता है, किसी अन्य भावना से नहीं। अनुकम्पा मात्र को वे निरवद्य मानते हैं, तब उन्हें आपत्ति क्यों हो? किन्तु भगवान् महावीर की अहिंसा-प्रधान विचारधारा को मान्य करने वाले इसे निर्दोष नहीं मानते। उनके मतानुसार दुःखी को मार डालने में करुणा की पूर्ति होगी किन्तु अहिंसा नहीं हो सकती । हमें दूसरों के जीवन-हरण का अधिकार नहीं है। अनुकम्पा और उसके १. अहिंसा, प्रथम भाग, प० ३५-३६ २. प्रश्नव्याकरण १, आ० : धम्महेउं तसे पाणे थाबरे च हिंसति मंदबुद्धी । ३. पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय ७६ : सूक्ष्मो भगवद्धर्मो धर्मार्थहिंसने न दोषोऽस्ति । __ इति धर्ममुग्धहृदयर्न जातुभूत्वा शरीरिणो हिंस्याः ।। ४. योगशास्त्र २।४० : ५. नवजीवन पुस्तक १५, पृ० १३८२, ता० २५६।२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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