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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १३५ निर्दोष माना जाए, वहां ये दो हो ही जाती हैं। मोक्ष-साधना का सर्वोपरि धर्म अहिंसा है। इसलिए यहां जो अहिंसा है, वही दया है। हिंसा किसी भी स्थिति में दया नहीं हो सकती। इसलिए अहिंसा को 'सर्वभूतक्षेमकरी' कहा गया है।' मुनि सब जीवों की दया के निमित्त अपने लिए बना भोजन नहीं लेते। भगवान् महावीर ने सब जीवों की रक्षा रूप दया के लिए प्रवचन किया। भगवान् अहिंसा-प्रधान थे। उनकी दया अहिंसा से विमुक्त नहीं हो सकती। हिंसा को दया मानना या दया के लिए होने वाली हिंसा को अहिंसा मानना उन्हें अभीष्ट नहीं था। इसलिए उन्होंने मोक्ष-धर्म को निषेध की भाषा में ही रखा। उनकी वाणी के कुछ प्रसंग और संवाद पढ़िए : भगवन् ! जीव अल्पायु-योग्य कर्म कैसे करते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात के द्वारा। भगवन् ! जीव दीर्घायु-योग्य कर्म कैसे करते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात-विरमण के द्वारा। भगवन् ! जीव अशुभ दीर्घायु-योग्य कर्म कैसे करते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात के द्वारा। भगवन् ! जीव शुभ-दीर्घायु-योग्य कर्म कैसे करते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात-विरमण के द्वारा। संयम का अर्थ है-सुख का वियोग और दुःख का संयोग न करना। सर्व जीवों के प्रति जो संयम है, वही अहिंसा है। अहिंसा का आधार संयम है, करुणा नहीं। जर्मन् विद्वान् अलबर्ट स्वीजर ने अहिंसा के आधार की मीमांसा करते हुए लिखा है- यदि अहिंसा के उपदेश का आधार सचमुच ही करुणा होती तो यह समझना कठिन हो जाता कि उसमें न मारने, कष्ट न देने की ही सीमाएं कैसे बंध सकी और दूसरों को सहायता प्रदान करने की प्रेरणा से वह कैसे विलग रह सकी है ? यह दलील कि संन्यास की भावना मार्ग में बाधक बनती है, सत्य का मिथ्या आभास मात्र होगा। थोड़ी से थोड़ी करुणा भी इस संकुचित सीमा के प्रति विद्रोह कर देती है परन्तु ऐसा कभी नहीं हुआ। १. प्रश्नव्याकरण, दूसरा संवर द्वार : अहिंसा तस-थावर-सव्वभूय-खेमंकरी । २. सूत्रकृतांग, टीका २।६।४० ३. प्रश्नव्याकरण, पहला संवर द्वार : सव्व जगजीवरक्खणदयठ्याए पावयणं भगवया सुकहियं । ४. भगवती ५६ ५. स्थानांग ।।४।३६ :सोक्खाओअववरोवेत्ता भवइ-दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवइ।' ६. दशवैकालिक ६९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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