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________________ १३२ अहिंसा तत्त्व दर्शन अनुकम्पा शब्द को लेकर कोई आग्रह नहीं होना चाहिए। वह प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार की हो सकती है । लौकिक दृष्टि से जो प्रशस्त है, वह आत्मदृष्टि से अप्रशस्त और आत्म-दृष्टि से जो प्रशस्त है, वह लौकिक दृष्टि से अप्रशस्त हो सकती है। कृतपुण्य पिछले जन्म में गरीब मां का लड़का था। उसने किसी त्योहार के दिन सबको दूध-पाक खाते देखा। वह मां के पास आकर बोला-मां ? मैं भी दूध खाऊंगा। नन्हे बच्चे की दीन वाणी ने उसे रुला दिया। पड़ोसियों ने यह देखा। उनके दिल में अनुकम्पा आयी। उन्होंने दूध, चावल आदि दिए । यह अनुकम्पा दान व्यवहार-दृष्टि से प्रशस्त है। बन्दरों के यूथपति ने मुनि की अनुकम्पा यानी भक्ति की। यह संयम की दृष्टि से प्रशस्त अनुकम्पा है। इसी प्रकार मेतार्य ने क्रौंच पक्षी की अनुकम्पा की। वे जानते थे-स्वर्ण यव इस पक्षी ने खाए हैं। सोनार ने उनसे पूछा किन्तु वे कुछ नहीं बोले। उनका हेतु था-प्राणी-दया। उन्होंने सोचा-सही स्थिति बतलाने का अर्थ होगा-क्रौंच की मृत्यु । मैं उसका हेतु न बनूं । इस अनुकम्पापूर्ण भावना से वे नहीं बोले, संयम में स्थिर रहे, अपने प्राण न्योछावर कर दिए। यह है आत्म-दृष्टि से प्रशस्त अनुकम्पा या आत्म-विसर्जन।' परिभाषा की दृष्टि से रागात्मक या करुणात्मक अनुकम्पा लोक-दृष्टि से प्रशस्त है। अरागात्मक या अहिंसात्मक अनुकम्पा आत्म-दृष्टि से प्रशस्त है। शब्द की अनेकार्थकता के कारण बड़ी उलझनें पैदा होती हैं। भगवान् महावीर कहते हैं-राग और द्वेष---ये दो कर्म बीज हैं" -- ये दोनों बन्धन हैं। राग से किए हए कर्मों का फल-विपाक पाप होता है। दूसरी ओर उन्हीं की वाणी में 'धर्मानुराग' जैसा प्रयोग मिलता है और वह मुक्ति का हेतु माना गया है। राग शब्द के इस दो अर्थ वाले प्रयोग से हमें जानने को मिला कि असंयम बढ़ाने वाला राग ही कर्म का बीज, बन्धन और पाप फलकारक है । संयम के प्रति होने वाली अनुरक्ति केवल शब्दमात्र से राग है, वास्तव में नहीं, इसलिए वह कर्म-बीज, बन्धन व पाप फलकारक नहीं है। इस दृष्टि को ध्यान में रखते हुए पूर्वांचार्यों ने राग-द्वेष के दोदो भेद कर डाले : १. प्रशस्त राग १. प्रशस्त द्वेष २. अप्रशस्त राग २. अप्रशस्त द्वेष १. आवश्यक वृत्ति, मलयगिरि ८६६-८७० २. उत्तराध्ययन ३२१७ ३. आवश्यक श्रमणसूत्र ४ ४. औपपातिक ६।१३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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