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________________ ११८ अहिंसा तत्त्व दर्शन लोग सोचेंगे--यह कैसा उत्तर ! थोड़े से प्रश्न पर कितने विकल्प किए हैं। प्रश्नकर्ता सब स्थितियों को विश्लेषणपूर्वक समझ सके, इसलिए ऐसा उत्तर देना स्याद्वाद की विधि है। ऐसा उत्तर प्रश्नकर्ता को जाल में फांसने के लिए नहीं, किन्तु दुविधा से परे रखने के लिए होता है। इस पर भी उत्तरदाता के दृष्टिक ण को कोई ठीक नहीं पकड़ सके, उसका क्या इलाज हो ? रामगढ़ की बात है। आचार्यश्री तुलसी के पास बहुत सारे पंडित एकत्र होकर आए । उनका प्रश्न अपना नहीं था। उसके पीछे भ्रान्त प्रचार था। उन्होंने आचार्यप्रवर से पूछा-जीव बचाने में क्या होता है ? धर्म या अधर्म ? आचार्यवर ने उनकी भ्रान्ति को एकबारगी समेटते हुए कहा-कथंचित् धर्म और कथंचित् अधर्म । जो संयमी हैं, अहिंसक हैं, उन्हें बचाने में धर्म है और जो हिंसक हैं, असंयमी हैं, उन्हें बचाने में अधर्म । तात्पर्य यह कि संयम की रक्षा धर्म है असंयम की रक्षा धर्म नहीं है। __ आचार्य भिक्षु ने विरोधी प्रश्नों को सुलझाते हुए रहस्यवाद का बड़ा भारी उपयोग किया है। वे जहां अध्यात्म के दृष्टिकोण से देखते हैं और अध्यात्म की भाषा में बोलते हैं, वहां हिंसायुक्त असंयममय उपकारों को अधर्म, पाप, अशुभकर्म कहते हैं और जहां समाज के दृष्टिकोण से देखते हैं, वहां उन्हीं को संसार का उपकार आदि-आदि कहते हैं। आचार्यश्री तुलसी सामाजिक कर्तव्यों को लौकिक धर्म कहते हैं, वहां कई व्यक्तियों को बड़ी कूटनीति लगती है और वे सिद्धान्त को छिपाने का आरोप लगाते नहीं सकुचाते। किन्तु आचार्यश्री की उत्तर-पद्धति का आधार पाने के लिए आचार्य भिक्षु के कुछ पद्यों का मनन करिए। फिर विरोध नहीं दीखेगा। देखिए आचार्य भिक्षु ने लिखा है : "जीवां नै जीवां बचावियां हुवै संसार तणो उपगार। यहां प्राण-रक्षा को संसार का उपकार कहा गया है। आगे चलिए बचावण वालो ने उपजावण वालो, ए तो दोनूं संसार तणा उपगारी। एहवा उपगार करै आहमा साहमा, तिण में केवली रो धर्म नहीं छै लिगारी ॥२ मरते जीव को बचाने वाला और जीव को पैदा करने वाला पिता, दोनों संसार के उपकारी हैं। ये पारस्परिक उपकार हैं। इनमें केवली का धर्म नहीं है। यहां 'केवली का धर्म नहीं है'-यह पद ध्यान देने योग्य है । १. अनुकम्पा चौपई १२१८ २. वही, १११४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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